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युगवीर-निबन्धावली ज्ञात" अर्थात् इन गुत्परिपाटीले अविच्छिन्न-सम्प्रदाय-बारा चला आया यह शास्त्र कन्दर्पाचार्यको प्राप्त हुआ। कन्दर्पाचार्य और उनके शिष्य गुणनन्दि दोनों के पास ( 'पार्वे तयोयोपि' ) उन्द्रनन्दिने उस शान्त्रको पढकर भापादिके परिवर्तनद्वारा 'ज्वालिनीमत' की नई सरल रचना की है। इससे कन्दर्पाचार्यका नमय इस ग्रथचनाके करीवका ही जान पड़ता है, और उनकी अविच्छिन्न गुर-परम्पगमे कुल पांच नामोका उल्लेख होनेगे वह प्राय १२५ या १५० वाति अधिक पूर्वकी मालूम नहीं होती। ऐसी हालतमे उगत एलाचार्यका समय विक्रमकी ध्वी शताब्दीसे पूर्वका मालूम नहीं होता। तव कुन्दकुन्दाचार्यके माय उसका एक व्यक्तित्व भी नहीं बन सकता और न इस आधार पर 'एलाचार्य' नामकी प्रामाणिकताको सन्देहकी दृष्टिसे ही देखा जा सकता है। ज्वालिनीमतके मूलका एलाचार्यको तो वैसे भी द्राविडमघका आचार्य लिखा है-जिस नंघकी स्थापना सुन्दकुन्दाचार्यसे बहुत बाद हुई है, कथापरसे उनका समय भी भिन्न जान पड़ता है और स्थान भी उनका मलय-देशस्थ हेमग्राम ( होन्नूर ) बतलाया है, जब कि श्रीकुन्दकुन्दाचार्यका स्थान कोडकुन्दपुर प्रसिद्ध है और उसीपरसे वे 'कोडकुन्दाचार्य' कहलाते थे, जिसका श्रुतिमधुर रूप 'कुन्दकुन्दाचार्य' हुआ है। इसके सिवाय, एलाचार्य नामके दूसरे भी प्रसिद्ध आचार्य हुए ही हैं, जो कि धवलादिके रचयिता वीरसेनके गुरु थे, तब वक्रग्रोव और गृद्धपिच्छ नामोकी तरह एलाचार्य नामको भी यदि कल्पित एव भ्रान्तिमूलक मान लिया जाय तो इसमें कोई विशेष आपत्ति उस वक्त तक मालूम नही होती जब तक इसके विरुद्ध कोई नया पुष्ट प्रमाण उपस्थित न हो जाय।।
इसी प्रथम विभागमे, कथाओ आदिके आधार पर कुन्द