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युगवीर-निबन्धावली ~परमाण-बाद (उपधा० ३) ७-न्यावाद, अथवा नापेक्ष-विधानका सिद्धान्त (उपधा०६) ८~-देवता-विषयक जैन-अवधारणा ( उपधा० ५)। है-~भारतीय धार्मिक विचारणानं जैन धर्मका स्थान ।
पाचवे विभागमे प्रवचनमारके यह टीकाकागेका-१ अमृतनन्द्र, २ जयनेन, ३ वालचन्द्र, ४ प्रभाचन्द्र, ५ मल्लिपेण, ६ पाडे हेमराजगा और उनकी टीकाओका कुछ परिचय दिया गया है और साथ ही उनके गमयादिकका विनार भी किया गया है।
छठे विभागमे, प्रवचनमारकी आकृत-भापाको लेकर, उसके व्याकरण-सम्बन्धी विषयो-नियमो उपनियमोपी कितनी ही छानबीन की गई है, प्राथनके सौरसेनी और महाराष्ट्री भेदोकी चर्चा करते हुए प्रवचनमारकी भापाको डा० पिश्चेल ( pishel ) के मनानुसार, 'जनमौरसेनी' ठहराया है और श्वेताम्बरीय आगमोत्तरग्रथोकी भापाको 'जनमहाराष्ट्री' बतलाया है। साथ ही, यह सहेतुक प्रकट किया है कि प्रवचनसार जैसे पुरातनजैन सौरमेनी भापाके ग्रन्थ, जोकि देशी शब्दोसे रहित है, उन प्रचलित ग्वेताम्बरीय आगमग्रन्थोसे प्राचीन हैं जिनमें देशी शब्दोका कितना ही मिश्रण पाया जाता है। १५ पृष्ठोका यह विभागप्राकृत-भापाकी आलोचनाके साथ एक भापापर दूसरी भापाके प्रभाव आदिको व्यक्त करते हुए तथा भापा-विषयक कितनी ही ऐतिहासिक चर्चाको स्थान देते हुए और उसपरसे अनेक निप्कोको निकालते हुए बडे ही ऊहापोहके साथ विद्वत्तापूर्ण ढगसे लिखा गया है। और इससे यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि प्रो० साहव जिस अर्धमागधी एव प्राकृतभाषाके शिक्षक हैं उसका आपको कितना गहरा अभ्यास है।