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प्रवचनसारका नया सस्करण
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दर्शाते हुए बढी हुई गाथाओकी प्रकृति आदिका विचार प्रस्तुत किया गया है। तीसरेमें, प्रवचनसारका अध्याय-क्रमसे सक्षेपमे बडा ही सुन्दर सार दिया गया है और उसे देते हुए विपय-विभागको लक्ष्यमे रखकर गाथाओके नम्बरोकी सूचना भी साथमे कर दी गई है, जिससे वह बहुत ही उपयोगी हो गया है । इसके सिवाय प्रवचनसार पर कुछ विवेचनात्मक नोट्स (critical remarks) भी दिये हैं। चौथे उपविभागमे, प्रचनसारके दार्शनिक रूपका ६ धाराओमे अच्छी विवेचनाओ तथा उपयोगी फुटनोटोके साथ प्रदर्शन किया गया है और दूसरे दर्शनो तथा सिद्धान्तोंके साथ तुलनात्मक अध्ययन एव विचारकी कितनी ही सामग्री सामने रक्खी गई है। धाराओमे ग्रन्थके प्रतिपाद्य दार्शनिक विषयोका अपने ढगसे मूल गाथाओके पते सहित निरूपण है और उपधाराएँ उनकी व्याख्या, आलोचना, विचारणा अथवा तुलना आदिको लिये हुए हैं। ३६ पृष्ठका यह उपविभाग नि सन्देह बडे ही महत्वका है और लेखकके विशाल अध्ययन तथा गुरुतर परिश्रमका अच्छा परिचायक है। और पाँचवेमे प्रवचनसारके तृतीय अध्यायानुसार आदर्श जैन मुनि ( श्रमण ) का रूप देकर उसके कुछ आचारोकी आलोचना की गई है।
उक्त ६ धाराओका विषय-विभाग उपधाराओकी सख्या सहित इस प्रकार है ~~
१-वैधिकी पृष्ठभूमि अथवा जैन पदार्थविद्या (उपधा० १) २-द्रव्य, गुण और पर्याय ( उपधा० ४)। ३-जीव और पुद्गलका स्वरूप ( उपधा० २)। ४---उपयोयत्रय-वाद ( उपधा० १) ५-सर्वज्ञता-सिद्धान्त ( उपधा० ८)