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युगवीर-निवन्धावली ढग आदिसे परिचित कुछ उदारहृदय अनुभवी विद्वानोका एक सम्पादकीय वोर्ड नियत किया जाना चाहिये और उसके द्वारा वहुत ही व्यवस्थित रूपसे सम्पादनादिका सव कार्य उत्तमताके साथ चलाना चाहिये । खासकर ऐसी हालतमे जवकि अपना पूरा समय और योग लगानेकी सुविधा भी प्राप्त नहीं है और वे खुद ही समयादिकी सकीर्णतामय अपनी उस स्थितिका पहलेसे ही उल्लेख कर रहे हैं।
सम्पादकीय बोर्डमे प्रोफेसर ए० एन० उपाध्याय एम० ए० का भी खास स्थान रहना चाहिये, जोकि दिगम्बर समाजमे प्राकृत-भापाके एक मुख्य विद्वान हैं, कोल्हापुरके राजाराम कॉलिजमै प्राकृत-भापाके सिखानेका ही काम कर रहे हैं और वहपरिश्रमी होनेके साथ-साथ साहित्यादि-विषयक शोध-खोजके ऐसे कामोमे विशेष रुचि रखनेवाले सज्जन है।
ग्रन्थके साथमे जब कि हिन्दी अनुवाद दिया जा रहा है तव प्राकृतका सस्कृत छायानुवाद रखने की मेरी रायमे कोई जरूरत नही है। हमारे पडित लोग प्राय सस्कृतके आधारपर प्राकृतको लगानेके आदी हो गए हैं, उनकी यह आदत छुडानी चाहिये । उन्हे अपने आगमोकी मूलभापाका अथवा उस प्राकृत-भाषाका स्वतत्ररूपसे वोध होना चाहिये जिसमे उनके प्राचीन मौलिक ग्रन्थ लिखे हुए हैं। इस प्रकारके प्रयत्नो-द्वारा यह सब कुछ हो सकेगा । सस्कृत-छाया के साथमे न रहनेसे व्यर्थका कितना हो परिश्रम बचेगा, ग्रन्थका परिमाण भी एक तिहाईके करीव कम हो जायगा, जिससे लागत कम आएगी और मूल्य भी कम रक्खा जा सकेगा, जिसकी बडी जरूरत है।
यहाँ पर मुझे यह देखकर खेद होता है कि ११ पृष्ठोका जो अश नमूनेके तौर पर प्रकाशित किया गया है उसका मूल्य चार