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युगवीर-निवन्धावली यह होता है कि परम वीतरागी चौवीस तीर्थडर क्या किसी पर अप्रसन्न या हीनाधिक रूपमे प्रसन्न भी होते हैं ? यदि ऐसा नहीं है तो फिर इसे लिखनेका अभिप्राय ? अभिप्राय जिसे आगे डैश (-) डालकर अथवा अर्थात् शब्दके साथ व्यक्त करना चाहिये था, यह है कि 'मैं प्रसन्नतापूर्वक उनके गुणोको अपने हृदयमे धारण करूँ। सदेहास्पद स्थलोपर इस प्रकारका स्पष्टीकरण साथमे रहनेसे, जिसकी बडी जरूरत है, सिद्धान्तके समझनेमे कोई भ्रम नही होता।
(च) ग्रथके नमूने रूप इन ११ पृष्ठोमे छोटी-छोटी-सी कुल पाँच टिप्पणियाँ हैं और वे भी एक ही प्रकारकीअर्थात् आदर्शप्रतिमें क्या पाठ है मात्र इसी वातको सूचित करनेवाली हैं, जबकि अनेक महत्वपूर्ण टिप्पणियोका स्थान खाली ही जान पडता है । अस्तु, वह 'आदर्शप्रति' कौनसी अथवा कहाँकी है यह किसी जगह पर भी व्यक्त नही किया गया । आदर्शप्रतिके जिन पाठभेदोका सशोधन किया गया है वे प्राय लेखकीय मूर्खताके द्योतक अशुद्ध पाठ हैं अथवा शीघ्रतादिवश अक्षरोको ठीक तौर से न पढने और न लिखनेसे सम्बन्ध रखते हैं। ऐसे पाठभेदोको बास्तवमे पाठभेद ही न कहना चाहिये और न उन्हे दिखलानेकी ऐसी कोई खास जरूरत है, जैसे पहली गाथाकी टिप्पणीमे 'भवण' की जगह आदर्शप्रतिके अर्थशून्य 'वभण' पाठका उल्लेख किया गया है, जो शीघ्रतादिवश अक्षरोंके आगे पीछे लिखे जानेका परिणाम है। आराकी प्रतिमे शुद्ध 'भवण' पाठ ही पाया जाता है। इससे टिप्पणीका कार्य बहुत ही साधारण हुआ जान पड़ता है।
(छ) छापेकी भी कितनी ही अशुद्धियाँ देखनेमे आती हैं और वे प्राकृत, सस्कृत तथा हिन्दी तीनो मे ही पाई जाती है ।