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२९ कानजी स्वामी और जिनशासन
४४९ इस तरह जिनशासनका 'अनन्य' विशेपण नही बनता । 'नियत' विशेषण भी उसके साथ घटित नही होता, क्योकि प्रथम तो सव जिनो-तीर्थंकरोका शासन फोनोग्राफके रिकार्डकी तरह एक ही अथवा एक ही प्रकारका नही रहा है अर्थात् ऐसा नही कि जो वचनवर्गणा एक तीर्थकरके मुंहसे खिरी वही जंची-तुली दूसरे तीर्थंकरके मुंहसे निकली हो-बल्कि अपने अपने समयकी, परिस्थिति, आवश्यकता और प्रतिपाद्योके अनुरोधवश कथनशैलीकी विभिन्नताके साथ कुछ-कुछ दूसरे भेदको भी वह लिये हुए रहा है, जिसका एक उदाहरण मूलाचारकी निम्न गाथासे जाना जाता है .वावीसं तित्थयरा सामाइयं संजमं उवदिसंति । छेदोवट्ठावणियं पुण भयवं उसहो य वीरो यः ॥७-३६॥
इसमे बतलाया है कि 'अजितसे लेकर पार्श्वनाथपर्यन्त . वाईस तीर्थंकरोने 'सामायिक' सयमका और ऋषभदेव तथा वीर भगवानने 'छेदोपस्थापना' सयमका उपदेश दिया है। अगली गाथाओमे उपदेशकी इस विभिन्नताके कारणको, तात्कालिक परिस्थितियोका कुछ उल्लेख करते हुए, स्पष्ट किया गया है तथा और भी कुछ विभिन्नताओका सकारण सूचन किया गया है। इस विषयका विशेष परिचय प्राप्त करनेके लिये 'जैनतीर्थकरोका शासनभेद' नामक वह निबन्ध देखना चाहिए जो प्रथमतः अगस्त सन् १६१६ के 'जन हितैषी' पत्रमे और बादको 'जैनाचार्योंका शासनभेद' नामक ग्रन्यके परिशिष्टो 'क, ख' मे परिवर्धनादिके साथ प्रकाशित हुआ है और जिसमे दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनो सम्प्रदायोके अनेक प्रमाणोका सकलन है। साथ