________________
४६२
युगवीर-निबन्धावली , धर्म है, जिससे रागको उत्पत्ति हो वह जैनधर्म नहीं है। यह कथन आपका सर्वथा एकान्त-दृष्टिसे आक्रान्त है-व्याप्त है, क्योकि जैनदर्शनका ऐसा कोई भी नियम नही जिससे शुद्धात्मानुभवके साथ वीतरागताका होना अनिवार्य कहा जा सके-वह होती भी है और नही भी होती । शुद्ध आत्माका अनुभव हो. जानेपर भी रागादिककी परिणति चलती है, इन्द्रियोके विषय भोगे जाते हैं, राज्य किये जाते हैं, युद्ध लडे जाते हैं और दूसरे भी अनेक राग-द्वेषके काम करने पड़ते हैं, जिन सबके उल्लेखोसे जैनशास्त्र भरे पड़े हैं। इसकी वजह है दोनोके कारणोका अलग अलग होना । शुद्धात्माका अनुभव जिस सम्यग्दर्शनके द्वारा होता है उसके प्रादुर्भावमे दर्शनमोहनीय कर्मकी मिथ्यात्वादि तीन और
चरित्रमोहनीयकी अनन्तानुबन्धी सम्बन्धी चार ऐसी सात कर्म1. प्रकृतियोके उपशमादिक निमित्त कारण हैं और वीतरागता जिस
वीतरागचरित्रका परिणाम है उसकी प्रादुर्भूतिमे चारित्रमोहनीयकी समस्त कर्म-प्रकृतियोका क्षय निमित्त कारण है। दोनोंके निमित्त कारणोका एक साथ मिलना अवश्यंभावी नही है और इसलिये स्वात्मानुभवके होते हुए भी बहुधा वीतरागता नही होती।
इस विषयमे यहाँ दो उदाहरण पर्याप्त होगे-~-एक सम्यग्दृष्टि देवोका और दूसरा राजा श्रेणिकका । राजा श्रेणिकको मोहनीयकर्मकी उक्त सातो प्रकृतियोके क्षयसे क्षायिक सम्यग्दर्शन उत्पन्न हुआ और इसलिए उसके द्वारा अपने शुद्धात्माका अनुभव तो हमा परन्तु वीतरागताका कारण उपस्थित न होनेके कारण वीतरागता नही आ सकी और इसलिये उसने राज्य किया, भोग भोगे, अनेक प्रकारके राग-द्वेषोको अपनेमे आश्रय दिया तथा अपघात करके २. किया। वह भरकर पहले नरकमे गया, वहाँ भी उसके
-
-
-
-
-
-
-