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युगवीर-निवन्धावली
यदि जैनधर्ममे रागमात्रका सर्वथा अभाव माना जाय तो जैनधर्मानुयायी जैनियोके द्वारा लौकिक और पारलौकिक दोनो प्रकारके धर्ममेसे किसी भी धर्मका अनुष्ठान नहीं बन सकेगा। सन्तान-पालन और प्रजा-सरक्षणादि जैसे लौकिक धर्मोकी बात छोडिये, देवपूजा, अर्हन्तादिकी भक्ति, स्तुति-स्तोत्रोका पाठ, स्वाध्याय, संयम, तप, दान, दया, परोपकार, इन्द्रियनिग्रह, कषायजय, मन्दिर-मूर्तियोका निर्माण, प्रतिष्ठापन, व्रतानुष्ठान, धर्मोपदेश, प्रवचन, धर्मश्रवण, वात्सल्य, प्रभावना, सामायिक और ध्यान जैसे कार्योको ही लीजिये, जो सब पारलौकिकक धर्मकार्योंमे परिगणित हैं और जैन धर्मानुयायियोके द्वारा किये जाते हैं। ये सब अपने-अपने विषयके रागभावको साथमे लिये हुए होते हैं और उत्तरोत्तर अपने विषयकी रागोत्पतिमे बहुधा कारण भी पडते हैं। रागभावको साथमे लिये हुए होने आदिके कारण ये सब कार्य क्या जैनधर्मके कार्य नही हैं ? यदि जैनधर्मके कार्य नही हैं तब क्या जैनेतरधर्मके कार्य हैं या अधर्मके कार्य हैं ? श्रीकानजी स्वामी इनमेसे बहुतसे कार्यों को स्वय करते-कराते तथा दूसरोके द्वारा अनुष्ठित होने पर उनका अनुमोदन करते हैं, तब क्या उनके ये कार्य जैनधर्मके कार्य नही है ? मैं तो कमसे कम इसे माननेके लिये तैयार नहीं हूँ और न यही माननेके लिये तैयार हूँ कि ये सब कार्य उनके द्वारा बिना रागके ही जड़ मशीनोकी तरह संचालित होते हैं। मैंने उन्हे स्वय स्वेच्छासे प्रवचन करते, शका-समाधान करते और अर्हन्तादिकी भक्तिमे भाग लेते देखा है, उनकी संस्था 'जैनस्वाध्यायमन्दिरट्रस्ट' तथा उसकी प्रवृत्तियोको भी देखा है और साथ ही यह भी देखा है कि वे रागरहित नही है। परन्तु यह सब कुछ देखते हुए भी मेरे हृदय पर ऐसी कोई छाप नही पड़ी जिसका फलितार्थ यह हो कि आप जैन नही या आपके कार्य