________________
हीराचन्दजी बोहराका नम्र निवेदन और कुछ शंकाएँ ४८७ भी इसमे “लौकिकजन" तथा "अन्यमती" जैसे शब्दो से याद किया है और प्रकारान्तरसे यहाँ तक कह डाला है कि उन्होने जिनशासनको ठीक समझा नही, यह सव असह्य जान पडता है। ऐसी स्थितिमें समयाभावके होते हुए भी मेरे लिये यह आवश्यक हो गया है कि मैं इस प्रवचन-लेख पर अपने विचार व्यक्त करूं ( इत्यादि)।" __कानजी स्वामीके व्यक्तित्वके प्रति मेरा कोई विरोध नहीं है, मैं उन्हे आदरकी दृष्टिसे देखता हूँ, चुनाचे अपने लेखके दूसरे भागमे मैने यह व्यक्त भी किया था कि-"आपके व्यक्तित्वके प्रति मेरा बहुमान है—आदर है और मैं आपके सत्सगको अच्छा समझता हूँ, परन्तु फिर भी सत्यके अनुरोधसे मुझे यह मानने तथा कहनेके लिये वाध्य होना पडता है कि आपके प्रवचन बहुधा एकान्तकी ओर ढले होते हैं-उनमे जाने-अनजाने वचनानयका दोप वना रहता है। जो वचन-व्यवहार समीचीन नय-विवक्षाको साथमे लेकर नही होता अथवा निरपेक्षनय या नयोका अवलम्बन लेकर प्रवृत्त किया जाता है वह वचनानयके दोपसे दूषित कहलाता है।"
साथ ही यह भी प्रकट किया था कि-"श्री कानजी स्वामी अपने वचनोपर यदि कडा अकुश रक्खे, उन्हे निरपेक्ष-निश्चयनयके एकान्तकी ओर ढलने न दे, उनमे निश्चय-व्यवहार दोनो नयोका समन्वय करते हुए उनके वक्तव्योका सामजस्य स्थापित करें, एक दूसरेके वक्तव्यको परस्पर उपकारी मित्रोके वक्तव्यकी तरह चित्रित करें—न कि स्व-परप्रणाशी-शत्रुओके वक्तव्यकी तरह-और साथ ही कुन्दकुन्दाचार्यके 'ववहारदेसिदा पुण जे दु अपरमेट्ठिदा भावें इस वाक्यको खास तौरसे ध्यानमे रखते हुए