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हीराचन्दजी वोहराका नम्र निवेदन और कुछ शकाएँ ५१७ होता-वे कर्मनिर्जरादिके कारण बनते हैं, जैसाकि श्रीअमृतचद्राचार्य के निम्न वाक्यसे जाना जाता है
येनांशेन चरित्रं तेनांशेनाऽस्य वन्धनं नास्ति । येनांशेन तु रागस्तेनांशेनाऽस्य बन्धनं भवति ।। (पु० सि०)
इसी बातको श्रीवीरसेनाचार्यने, अपनी जयधवला टीकामें, और भी स्पष्ट करके बतलाया है। वे सरागसयममें मुनियोकी प्रवृत्तिको युक्तियुक्त वतलाते हुए लिखते हैं कि उससे बन्धकी अपेक्षा असख्यातगुणी निर्जरा ( कर्मोंसे मुक्ति ) होती है। साथ ही यह भी लिखते हैं कि भावपूर्वक अरहतनमस्कार भी-जो कि भक्तिभावरूप सरागचारित्रका ही एक अग है-बन्धकी अपेक्षा असख्यात गुणकर्मक्षयका कारण है, उसमे भी मुनियोकी प्रवृत्ति होती है .
"सरागसंजमो गुणसेढिणिजराए कारणं, तेण बंधादो मोक्खो असंखेजगुणो त्ति सरागसंजमे मुणीणं वट्टणं जुत्तमिदि ण पच्चवट्ठाणं कायव्यं । अरहंतणमोकारो सपहिय बधादो असखेज्जगुणकस्मक्खयकारओ त्ति तत्थ वि मुणीणं पवुत्तिापसंगादो। उत्तंच
अरहंतणमोकारं भावेण जो करेदि पयडमदी। सो सव्वदुक्खमोक्खं पावइ अचिरेण कालेण ॥"
इसके सिवाय, मूलाचारके समयसाराधिकारमे यत्नाचारसे चलनेवाले दयाप्रधान साधुके विपयमे यह साफ लिखा है कि उसके नये कर्मका बन्ध नहीं होता और पुराने बंधे कर्म झड जाते हैं अर्थात् यत्नाचारसे पाले गये महाव्रतादिक सवर और निर्जराके कारण होते हैं
जदं तु चरमाणस्य दयापेहुस्स भिक्खुणो । णव ण वज्झदे कम्मं पोराणं च विधूयदि ॥२३||