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हीराचन्दजी वोहराका नम्र निवेदन और कुछ शकाएँ ५३३ ७. तिस्त्रः सत्तमगुप्तयस्तनुमनोभाषानिमित्तोदया। पंचेर्यादिसमाश्रयाः समितय. पंचव्रतानीत्यपि । चारित्रोपहितं त्रयोदशतयं पूर्व न दिष्टं परैराचारं परमेष्ठिनोजिनपतेर्वीरं नमामो वयम् ।। ( चारित्रभक्ति )
इनमेसे पहले न० के दो वाक्य स्वामी समन्तभद्रके हैं, जिनमे यह सूचित किया गया है कि रत्नकरण्डमें जिस धर्मका वर्णन है वह धर्मेश्वर ( वीर-वर्द्धमानतीर्थकर ) के द्वारा कहा गया है और वह समीचीनधर्म अभ्युदयफलको भी फलता है। दूसरे न० का वाक्य नेमिचन्द्राचार्यका है, जिसमे अशुभसे निवृत्ति और शुभमें प्रवृत्तिको सच्चारित्र बतलाया है और लिखा है कि वह व्रत, समिति तथा गुप्तिके रूपमे है और उसे व्यवहारनयकी दृष्टिसे जिनेन्द्रने प्रतिपादित किया है। तीसरे, चौथे और पांचवें नम्बरके वाक्य श्रीकुन्दकुन्दाचार्य-प्रणीत ग्रन्थोके है, जिनमे अणुव्रतादि तथा एकादश प्रतिमाओके रूपमे आचारको श्रावकधर्म और महाव्रतादि तथा दशलक्षणादिरूप आचारको मुनिधर्मके रूप में निर्दिष्ट किया है । साथ ही, यह भी निर्दिष्ट किया है कि दान, पूजा श्रावकका मुख्य धर्म है-उसके बिना कोई श्रावक नही होता, और ध्यान तथा अध्ययन यतिका मुख्य धर्म है उसके बिना कोई यतिमुनि नहीं होता। इसके सिवाय, बारसअणुपेक्खामे यह भी प्रतिपादित किया गया है कि निश्चयनयसे जीव सागार ( गृहस्थ ) अनगार ( मुनि ) के धर्मसे भिन्न है अर्थात् गृहस्थ और मुनिका धर्म निश्चयनयका विषय नही है-वह सब व्यवहारनयका ही विषय है । छठे-सातवे नबरके वाक्य पूज्यपादाचार्यके हैं जिनमेसे एकमे उन्होने यह सूचित किया है कि मुनियोके दस प्रकार धर्मकी और गृहस्थोंके ग्यारह प्रकार धर्मकी देशना करते हुए श्रीवीर