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द्रव्य-सग्रहका अग्रेजी सस्करण
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प्रकारका उल्लेख करना कोई जरूरी नही है, खासकर ऐसे ग्रथमे जो सूत्ररूपसे लिखा गया हो। लघु और बृहत् ये सज्ञायें एक नामके दो ग्रथोमे परस्पर अपेक्षासे होती है, परन्तु जब एक ग्रथकार अपनी उसी कृतिमे कुछ वृद्धि करता है तो उसे उसका नाम बदलने या उसमे बृहत् शब्द लगानेकी जरूरत नहीं है । हाँ, ब्रह्मदेवकी तरह दूसरा व्यक्ति उसकी सूचना कर सकता है ।
रहा दूसरा कारण, वह तभी उपस्थित किया जा सकता है, जब पहले यह सिद्ध हो जाय कि यह द्रव्यसग्रह ग्रथ उन्ही नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीका बनाया हुआ है जो गोम्मटसार ग्रथके कर्ता हैं। प्रोफेसर साहबने द्रव्यसग्रहको उक्त नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीकी कृति मानकर ही यह दूसरा कारण उपस्थित किया है। परन्तु ग्रथभरमे इस बातके सिद्ध करनेकी कोई
चेष्टा नही की गई (जिसकी बहुत बड़ी जरूरत थी) कि यह ग्रथ वास्तवमे उक्त सिद्धान्तचक्रवर्तीका ही बनाया हुआ है। कोई भी ऐसा प्राचीन ग्रथ प्रमाणमे नही दिया गया, जिसमे यह ग्रथ गोम्मटसारके कर्ताकी कृतिरूपसे स्वीकृत हुआ हो, और न यह बतलाया गया कि द्रव्यसग्रहके कर्ताका समय कुछ पीछे मान लेनेसे कौन-सी बाधा उपस्थित होती है। ऐसी हालतमे ब्रह्मदेवके उक्त कथनको सहसा अप्रमाण या असत्य नही ठहराया जा सकता। ब्रह्मदेवका वह कथन ऐसे ढगसे और ऐसी तफसीलके साथ लिखा गया है कि, उसे पढते समय यह खयाल आये बिना नही रहता कि या तो ब्रह्मदेवजी उस समय मौजूद थे, जब कि द्रव्यसग्रह बनकर तैयार हुआ था, अथवा उन्हे दूसरे किसी खासमार्गसे इन सब बातोका पूरा ज्ञान प्राप्त हुआ है। द्रव्यसग्रहकी गाथाओपरसे भी उसके पहले लघु और फिर बृहत् वननेकी कुछ