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द्रव्य-संग्रहका अग्रेजी सस्करण
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'कल्किकी छट्ठी शताब्दी' किया जाय, जिसके अनुसार कल्कि सवत् ५०८ उक्त ईस्वी सन् ६८० के बराबर होता है । कल्पना अच्छी की गई है और इसके माननेमें कोई हानि नही, यदि अन्य प्रकारसे सब योग पूर्णतया घटित होते हो । परन्तु ईस्वी सन् ६८० शक संवत् ६०२ के बराबर है । ज्योतिषशास्त्रानुसार शक सवत्मे १२ जोडकर ६० का भाग देनेसे जो शेष रहता है उससे प्रभव- विभवादि सवतोका क्रमश नाम मालूम किया जाता है । यथा
" शकेन्द्रकालाऽर्कयुत कृत्वा शून्यरसैः हृतः । शेपा संवत्सरा शेया. प्रभवाद्या बुधै. क्रमात् ॥” इस हिसाब से शक सवत ९०२ मे १२ जोडकर ६० का भाग देनेसे अवशेष १४ रहते हैं, और १४ वॉ सवत् 'विक्रम' है, जिससे शक संवत् ६०२ का नाम 'विक्रम' होता है, 'विभव' नही । 'विभव' सवत् दूसरे नम्बर पर है जैसा कि, ज्योतिपशास्त्रोमे कहे हुए, 'प्रभवो विभव शुक्ल ' इत्यादि सवतोके नामसूचक पद्योसे पाया जाता है । ऐसी हालतमे, जब ईस्वी सन् ६८० मे 'विभव' सवत्मर ही नही वनता, तब गणित करके अन्य योगोके जाँच करनेकी जरूरत नही है । और इसलिये जबतक ज्योतिपशास्त्रके वे खास नियम प्रकट न किये जायँ जिनके आधारपर शक स० ६०२ का नाम 'विभव' बन सके तथा अन्य योग भी घटित हो सकें, तबतक मिस्टर लेविस राइस आदि विद्वानोके कथनानुसार यही मानना ठीक होगा कि गोम्मटेश्वरकी मूर्ति ईस्वी सन् ६७५ और ६५४ के मध्यवर्ती किसी समयमे प्रतिष्ठित हुई है ।
७ प्रस्तावनामे, ब्रह्मदेवकी सस्कृत टीकाका परिचय देते हुए, लिखा है कि यह टीका द्रव्यसग्रहके कर्ता नेमिचन्द्र से कई