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द्रव्य-संग्रहका अग्रेजी सस्करण
५५५ वास्तवमे मूलका ऐसा अभिप्राय नही है। इसी तरह २१ वें नम्बरको गाथाका अनुवाद करते हुए निश्चय और व्यवहार कालके स्वरूपमे परस्पर गडबडी की गई हैं। ४४ वी गाथाके अनुवादकी भी ऐसी ही दशा है ।
अब ग्रन्थकी अगरेजी टीकामे जो दूसरे शास्त्रविरुद्ध कथन पाये जाते हैं, उनके भी दो-चार नमूने दिखलाकर यह समालोचना पूरी की जाती है -
( क ) पृष्ठ १२ पर गणधरोको केवलज्ञानी लिखा है, जो ठीक नही। गणधर अपनी उस अवस्थामे सिर्फ चार ज्ञानके धारक होते हैं।
( ख ) पृ० १५ पर 'प्रत्यभिज्ञान' और हिन्दूफिलासोफीके 'उपमान प्रमाण' को एक बतलाया है । परन्तु स्वरूपसे ऐसा नही है। प्रत्यभिज्ञानका सिर्फ एक भेद, जिसे सादृश्यप्रत्यभिज्ञान कहते हैं, उपमान प्रमाणके बराबर हो सकता है।
(ग) पृ० ३६ पर यह सूचित किया है कि, जो जीव एक बार निगोदसे निकल जाता है-उन्नति करना प्रारभ कर देता है-वह फिर कभी उस निगोद-दशाको प्राप्त नही होता, उसके पतनका फिर कोई अवसर नही रहता। परन्तु यह कथन जैनशासनके विरुद्ध है । जैनधर्मकी शिक्षाके अनुसार निगोदसे निकला हुआ जीव फिर भी निगोदमे जा सकता है और उन्नतिकी चरम सीमाको पहुँचनेके पहले जो उत्थान होता है उसका पतन भी कथचित् हो सकता है।
(घ) गाथा न० ३० की टीकामे पाँच प्रकारके मिथ्यात्वोका जो स्वरूप लिखा है वह प्राय शास्त्र-सम्मत मालूम नहीं होता। जैसे विपरीत मिथ्यात्व उसे बतलाया है जिसमे यह खयाल किया जाता है कि यह या वह दोनो सत्य हो सकते हैं।