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हीराचन्दजी वोहराका नम्र निवेदन और कुछ शकाएँ ५२७ धर्मको पुण्य सज्ञा देने पर आपत्ति क्यो ? श्रीकुन्दकुन्दाचार्यने जब स्वय पूजा-दान-व्रतादिको एक जगह 'धर्म' लिखा है और दूसरी जगह 'पुण्य' रूपमें उल्लेखित किया है' तब उससे यह स्पष्ट जाना जाता है कि धर्मके एक प्रकारका उल्लेख करनेकी दृष्टिसे ही उन्होंने पुण्यप्रसाधक धर्मको 'पुण्य' सज्ञा दी है। अत दृष्टिविशेषके वश एकको अनेक सज्ञाएँ दिये जानेपर शंका अथवा आश्चर्य की कोई बात नही ।
शंका ८-यदि पुण्य भी धर्म है तो सम्यग्दृष्टि श्रद्धामें पुण्यको दण्डवत् क्यो मानता है ?
समाधान–यदि सम्यग्दृष्टि श्रद्धामे पुण्यको दण्डवत् मानता है तो यह उसका शुद्धत्वकी ओर बढा हुआ दृष्टिविशेषका परिणाम हो सकता है--व्यवहारमे वह पुण्यको अपनाता ही है और पुण्यको सर्वथा अधर्म तो वह कभी भी नही समझता । यदि पुण्यको सर्वथा अधर्म समझे तो यह उसके दृष्टिविकारका सूचक होगा, क्योकि पुण्यकर्म किसी उच्चतम भावनाकी दृष्टिसे हेय होते हुए भी सर्वथा हेय नही है।
शंका -यदि शुभभाव जैनधर्म है तो अन्यमती जो दान, पूजा, भक्ति आदिको धर्म मानकर उसीका उपदेश देते हैं, क्या वे भी जैनधर्मके समान हैं ? उनमें और जैन धर्ममें क्या अन्तर रहा?
समाधान-जैनधर्म और अन्यमत-सम्मत दान, पूजा, भक्ति आदिकी जो क्रियाएँ है वे दृष्टिभेदको लिये हुए है और इसलिए बाह्यमे प्राय समान होते हुए भी दृष्टिभेदके कारण उन्हें सर्वथा
१ देखो, अनेकान्त वर्ष १३, किरण १, पृ० ५