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युगवीर-निवन्धावली
यत्नाचार के विषयमे महाव्रती मुनियो और अणुव्रती श्रावकोकी स्थिति प्राय: समान है, और इसलिये यत्नाचारसे पाले गये अणुव्रतादिक भी श्रावको के लिये सवर - निर्जराके कारण है ऐसा समझना चाहिये ।
यहाँ पर मैं इतना और भी स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि सम्यक्चारित्रके अनुष्ठानमे, चाहे वह महाव्रतादिक के रूपमें हो या अणुव्रतादिकके रूपमे, जो भी उद्यम किया जाता या उपयोग लगाया जाता है वह सब 'तप' है, जैसा कि भगवती आराधनाकी निम्न गाथासे प्रकट है
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चरणम्मि तम्मि जो उज्जमो य आउंजाणो य जो होइ । सो चेव जिणेहिं तवो भणियं असढं चरंतस्स ||१०||
इसी तरह इच्छा निरोधका नाम भी 'तप' है, जैसा कि चारित्रसारके 'रत्नत्रया विर्भावार्थमिच्छानिरोधस्तपः ' इस वाक्यसे जाना जाता है । मुनियो तथा श्रावकोके अपने-अपने व्रतोंके अनुष्ठान एव पालनमे कितनी ही इच्छाका निरोध करना पडता है और इस दृष्टिसे भी उनका व्रताचरण तपश्चरणको लिये हुए है और 'तपसा निर्जरा च' इस सूत्रवाक्यके अनुसार तपसे सवर और निर्जरा दोनो होते हैं, यह सुप्रसिद्ध है ।
ऐसी स्थिति मे यह नही कहा जा सकता कि सम्यग्दृष्टिके उक्त शुभभाव एकान्तत बन्धके कारण हैं, बल्कि यह स्पष्ट हो जाता है कि वे अधिकाशमे कर्मोके सवर तथा निर्जरा के कारण हैं ।
शंका २ -- यदि इन शुभ भावोसे कर्मोंकी सवर निर्जरा होती है तो शुद्धभाव ( वीतरागभाव ) क्या कार्यकारी रहे ? यदि कार्यकारी नही तो उनका महत्व शास्त्रोमे कैसे वर्णित हुआ ?
समाधान -- शुभ भावोसे कर्मोंकी सवर तथा निर्जरा होनेपर