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हीराचन्दजी वोहराका नम्र निवेदन और कुछ शकाएँ ५१९ शुद्ध भावोकी कार्यकारितामे कोई बाधा नही पडती, वे सवरनिर्जराके कार्यको सविशेषरूपसे सम्पन्न करनेमे समर्थ होते हैं। शुभ और शुद्ध दोनो प्रकारके भाव कर्मक्षयके हेतु है। यदि ऐसा नही माना जायगा तो कर्मोका क्षय ही नही बन सकेगा, जैसा कि श्रीवीरसेनाचार्यके जयधवला-गत निम्न वाक्यसे प्रकट हैसुह-सुद्ध-परिणामेहि कम्मक्खयाभावे तक्खयाणुववत्तीदो।
(पृष्ठ ६) इसके अनन्तर आचार्य वीरसेनने एक पुरातन गाथाको उद्धृत किया है जिसमें "उवसम-खय-मिस्सया य मोक्खयरा" वाक्यके द्वारा यह प्रतिपादित किया गया है कि औपशमिक, क्षायिक और मिश्र (क्षायोपशमिक ) भाव कर्मक्षयके कारण हैं। इससे प्रस्तुत शकाके समाधानके साथ पहली शकाके समाधानपर
और भी अधिक प्रकाश पडता है और यह दिनकर-प्रकाशकी तरह स्पष्ट हो जाता है कि शुभभाव भी कर्मक्षयके कारण हैं। शुद्धभावोका तो प्रादुर्भाव भी शुभभावोका आश्रय लिये बिना होता नही । इस बातको प० जयचन्दजी और प० टोडरमलजीने भी अपने निम्न वाक्योके द्वारा व्यक्त किया है, जिनके अन्य वाक्योको बोहराजीने प्रमाणमे उद्धृत किया है और इन वाक्योका उद्धरण छोड दिया है।
"अर शुभ परिणाम होय तब या धर्म ( मोह-क्षोभसे रहित आत्माके निज परिणाम') की प्राप्तिका भी अवसर होय है।"
(भावपाहुड-टीका) "शुभोपयोग भए शुद्धोपयोगका यत्न करे तो ( शुद्धोपयोग) हो जाय ।" ( मोक्षमार्गप्रकाशक अ० ७)
यहाँपर मैं इतना और भी प्रकट कर देना चाहता हूँ कि