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३२ हीराचन्दजी वोहराका नम्र निवेदन और कुछ शकाएँ ४९७ पाठक तथा स्वय बोहराजी इस विषयमे मेरी असमर्थताको अनुभवकर सकेगे, ऐसी आशा है । वे शब्द इस प्रकार है
"तो क्या मुख्तार सा० की दृष्टिमे श्री प० जयचन्द्रजी भी उन्ही विशेपणोके पात्र है जो पडितजीने इन्ही शब्दोंके कारण श्रीकानजी स्वामीके लिये खुले दिलसे प्रयोग किये हैं। यदि नही तो ऐसी भूलके लिए खेद शीघ्र प्रकट किया जाना चाहिए।"
हाँ, यहाँ पर मैं इतना जरूर कहूँगा कि श्रीकानजी स्वामी पर जो यह आरोप लगाया गया था कि उन्होने अपने उक्त वाक्य-द्वारा जाने-अनजाने श्रीकुन्दकुन्दाचार्य, स्वामी समन्तभद्र, सिद्धसेन, अकलकदेव और विद्यानन्दादि-जैसे महान् आचार्योंको 'लौकिकजन" और "अन्यमती" वतलाकर भारी अपराध किया है, जिसका उन्हे स्वय प्रायश्चित्त करना चाहिए, उसका श्रीवोहराजीके उक्त प्रमाणसे कोई परिमार्जन नही होता-वह ज्योका त्यो खडा रहता है, और इसलिए उनका यह प्रमाण कोई प्रमाण नही, किन्तु प्रमाणाभासकी कोटिमे स्थित है, जिससे कुछ भोले भाई ही ठगाये जा सकते हैं।
(२) प० टोडरमलजी-कृत मोक्षमार्गप्रकाशकके जो वाक्य प्रमाणरूपमे उपस्थित किए गए हैं वे प्राय सब अप्रासगिक असगत अथवा प्रकृत-विषयके साथ सम्बन्ध न रखनेवाले हैं, क्योकि वे द्रव्यलिंगी मुनियो तथा मिथ्यादृष्टि-जैनियोको लक्ष्य करके कहे गये हैं, जबकि प्रस्तुत पूजा-दान-व्रतादिरूप सराग-चारित्र एव शुभ-भावोका विपय सम्यक्चारित्रका अग होनेसे वैसे मुनियो तथा जैनियोसे सम्बन्ध नहीं रखता, बल्कि उन मुनियो तथा जैनश्रावकोसे सम्बन्ध रखता है जो सम्यग्दृष्टि होते हैं। इसीसे पचमादि-गुणस्थानवर्ति-जीवोके लिये उन पूजा-दान-व्रतादिका