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हीराचन्दजी वोहराका नम्र निवेदन और कुछ शकाएँ ५०१ अथवा बन्धनसे मुक्तिमे सहायक है तो दूसरा उसमें बाधक है। इसी दृष्टिको लेकर सम्यग्दृष्टिके सरागचारित्रको मोक्षमार्गमे परिगणित किया गया है और उसे वीतरागचारित्रका एक साधन माना गया है।
जो लोग एकमात्र वीतराग अथवा यथाख्यातचारित्रको ही सम्यक्चारित्र मानते हैं उनकी दशा उस मनुष्य-जैसी है जो एकमात्र ऊपरके डडेको ही सीढी अथवा भूमिके उस निकटतम भागको ही मार्ग समझता है जिससे अगला कदम कोठेकी छतपर अथवा अभिमत स्थानपर पडता है, और इस तरह बीचका मार्ग कट जानेसे जिस प्रकार वह मनुष्य ऊपरके डडे या कोठेकी छतपर नही पहुंच सकता और न निकटतम अभिमत स्थानको हो प्राप्त कर सकता है उसी प्रकार वे लोग भी न तो यथाख्यातचारित्रको ही प्राप्त होते हैं और न मुक्तिको ही प्राप्त कर सकते हैं। ऐसे लोग वास्तवमे जिनशासनको जानने-समझने और उसके अनुकूल आचरण करनेवाले नही कहे जा सकते , बल्कि उसके दूपक विघातक एव लोपक ठहरते हैं, क्योकि जिनशासन निश्चय और व्यवहार दोनो मूलनयोके कथनको साथ लेकर चलता है और किसी एक ही नयके वक्तव्यका एकान्त पक्षपाती नही होता। प० टोडरमलजीने दोनो नयोकी दृष्टिको साथमें रक्खा है और इसलिए किसी शब्दछलके द्वारा उसे अन्यथा नहीं किया जा सकता । हाँ, जहाँ कही वे चूके हो वहाँ श्री कुन्दकुन्द और स्वामी समन्तभद्र-जैसे महान् आचार्योंके वचनोसे ही उसका समाधान हो सकता है। प० टोडरमलजीने मोक्षमार्गप्रकाशकके ७वें अधिकारमे ही यह साफ लिखा है कि
"सो महाव्रतादि भए ही वीतरागचारित्र हो है ऐसा सम्बन्ध