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युगवीर-निवन्धावली हुए और भारी वेदना उत्पन्न करनेवाले कांटेको हाथमे दूसरा अल्पवेदनाकारक एव अपने कन्ट्रोलमे रहनेवाला काँटा लेकर और उसे पैरमें चुभाकर उसके सहारेसे निकाला जाता है उसी प्रकार अल्पहानिकारक एक शत्रुको उपकारादिके द्वारा अपनाकर उसके सहारेसे दूसरे महाहानिकारक प्रवल शत्रुका उन्मूलन (विनाश किया जाता है। राग-द्वेप और मोह ये तीनो ही आत्माके शत्रु हैं, जिनमे राग शुभ और अशुभके भेदसे दो प्रकार है और अपने स्वामियो सम्यग्दृष्टि तथा मिथ्यादृष्टिके भेदसे और भी भेदरूप हो जाता है। सम्यग्दृष्टिका राग पूजा-दान-वतादिरूप शुभ भावोके जालमे बँधा हुआ है और इससे वह अल्पहानिकारक शत्रुके रूपमे स्थित है, उसे प्रेमपूर्वक अपनानेसे अशुभराग तथा द्वेप और मोहका सम्पर्क छूट जाता है, उनका सम्पर्क छूटनेसे आत्माका बल बढ़ता है और तब सम्यग्दृष्टि उस शुभरागका भी त्याग करनेमे समर्थ हो जाता है और उसे वह उसी प्रकार त्याग देता है जिस प्रकार कि पैरका कांटा निकल जाने पर हाथके कांटेको त्याग दिया जाता अथवा इस आशकासे दूर फेंक दिया जाता है कि कही कालान्तरमे वह भी पैरमे न चुभ जाय, क्योकि उस शुभरागसे उसका प्रेम कार्यार्थी होता है, वह वस्तुत उसे अपना सगा अथवा मित्र नही मानता और इसलिए कार्य होजानेपर उसे अपनेसे दूर कर देना ही श्रेयकर समझता है। प्रत्युत इसके, मिथ्यादृष्टिके रागकी दशा दूसरी होती है, वह उसे शत्रुके रूपमे न देखकर मित्रके रूपमे देखता है, उससे कार्यार्थी प्रेम न करके सच्चा प्रेम करने लगता है और इसी भ्रमके कारण उसे दूर करनेमे समर्थ नही होता। यही सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टिके शुभरागमे परस्पर अन्तर है-एक रागद्वेषको निवृत्ति