________________
हीराचन्दजी बोहराका नम्र निवेदन ओर कुछ शंकाएँ ५०७ व्रतादिके वैसे शुभ भावोको पुण्य और धर्म दोनो नामोसे उल्लेखित करते हैं, जिसका स्पष्टीकरण पहले उस लेखमें किया जा चुका है जिसके विरोधमे ही बोहराजीके प्रस्तुत विचारलेखका अवतार हुआ है और जिसे उनकी इच्छानुसार अनेकान्त वर्ष १३ की किरण ५मे प्रकाशित किया जा चुका है। वह वाक्य इस प्रकार है -
"पुण्य वधन है इसलिये मोक्षमार्गमे उसका निषेध है-यह वात ठीक है, किन्तु व्यवहारसे भी उसका निपेध करके पापमार्ग प्रवृत्ति करे तो वह पाप तो कालकूट विपके समान है, अकेले पापसे तो नरक निगोदमे जायेगा।"
यहाँ यह प्रश्न पैदा होता है कि इस वाक्यमें जिस विषयका प्रतिपादन किया गया है वह प्रतिपाद्य वस्तु कानजी स्वामीकी अपनी निजी है या किसी अन्य मत से ली गई है अथवा जिनशासनका अग होनेसे जैनधर्मके अन्तर्गत है ? यदि यह कहा जाय कि वह कानजीस्वामीकी अपनी निजी वस्तु है तो एक तो उसका यहां विचारमें प्रस्तुत करना असगत है, क्योकि प्रस्तुत विचार जिनशासनके विपयसे सम्बन्ध रखता है, न कि कानजोस्वामीको किसी निजी मान्यतासे। दूसरे, कानजीस्वामीके सर्वज्ञादित्य कोई विशिष्ट ज्ञानी न होनेसे उनके द्वारा नरक-निगोदमे जानेके फतवेकी बात भी साथमें कुछ बनती नही-निराधार ठहरती है। तीसरे, पुण्यरूप विकारकार्य इस तरह करने योग्य हो जाता है और कानजीस्वामीका यह कहना है कि "विकारका कार्य करने योग्य है-ऐसा माननेवाला जीव विकारको नहीं हटा सकता।" तब फिर ऐसे विकार-कार्यका विधान क्यो, जिससे कभा छुटकारा न हो सके ? यह उनके विरुद्ध एक नई आपत्ति