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युगवीर-निवन्वावली होती है। यदि उसे अन्यमतकी वस्तु बतलाया जाय तो भी यह उसका प्रस्तुतीकरण असगत है, साथ ही जैनधर्म एव जिनशासनसे बाह्य ऐसी वस्तुके प्रतिपादनका उन पर आरोप आता है जिसे वे मिथ्या और अभूतार्थ समझते हैं।' और यदि यह कहा जाय कि वह जिनशासनकी ही प्रतिपाद्य वस्तु है तो फिर कानजीस्वामीके द्वारा यह कहना कैसे सगत हो सकता है कि पूजा-दानव्रतादिके रूपमे शुभभाव जैनधर्म नही है ?-दोनो बातें परस्पर विरुद्ध पडती हैं। इसके सिवाय, कानजी स्वामीका मोक्षमार्गमें पुण्यका निपेध बतलाना और उसे धर्मका साधन भी न मानना जैनागमोके विरुद्ध जाता है, क्योकि जैनागमोमे मोक्षके उपाय अथवा साधन-रूपमे उसका विधान पाया जाता है, जिसके दो नमूने यहां दिये जाते हैं - (क) असमनं भावयतो रत्नत्रयमस्ति कर्मवन्धो यः । सविपक्षकृतोऽवश्य मोक्षोपायो न वन्धनोपायः ।।२१।।
-पुरुषार्थसिद्धथुपाय इसमे श्री अमृतचन्द्राचार्यने बतलाया है कि 'रत्नत्रयकी विकलरूपसे ( एक देश या आशिक ) आराधना करनेवालेके जो शुभभावजन्य पुण्यकर्मका बन्ध होता है वह मोक्षकी साधनामें सहायक होनेसे मोक्षोपाय ( मोक्षमार्ग) के रूपमे ही परिगणित है, बन्धनोपायके रूपमे नही ।
श्री अमृतचन्द्राचार्य-जैसे परम आध्यात्मिक विद्वान् भी जब सम्यग्दृष्टिके पुण्य-बन्धक शुभभावोको मोक्षोपायके रूपमें मानते तथा प्रतिपादन करते हैं तब कानजीस्वामीका वैसा माननेसे इनकार करना और यह प्रतिपादन करना कि 'जो कोई शुभभावमय पुण्य कर्मको धर्मका साधन माने उसके भी भवचक्र कम