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कानजी स्वामी और जिनशासन
४७३ पूजार्थाशश्वर्यैर्वल-परिजन-काम-भोगभूयिष्ठः। अतिशयितभुवनमद्भुतमभ्युदयं फलति सद्धर्मः ॥३५॥
स्वामी समन्तभद्रके इन सव वाक्योसे स्पष्ट है कि पूजा तथा दानादिक धर्मके अंग हैं, वे मात्र अभ्युदय अथवा पुण्य-फलको फलनेकी वजहसे धर्मकी कोटिसे नही निकल जाते। धर्म अभ्युदयरूप पुण्य-फलको भी फलता है, इसीसे लोकमे भी पुण्यकार्यको धर्मकार्य और धर्मको पुण्य कहा जाता है । जिस पुण्यके विषयमे 'पुण्यप्रसादात्कि किं न भवति' ( पुण्यके प्रसादसे क्या कुछ नही होता ) जैसी लोकोक्तियां प्रसिद्ध है, वह यो ही धर्मकी कोटिसे निकाल कर उपेक्षा किये जानेकी वस्तु नही है । तीन लोकके अधिपति धर्म-तीर्थकरके पदकी प्राप्ति भी उस सर्वातिशायि पुण्यका ही फल है-पुण्यसे भिन्न किसी दूसरे धर्मका नही, जैसा कि तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकके निम्न वाक्यसे प्रकट है -
सर्वातिशायि तत्पुण्यं त्रैलोक्याधिपतित्वकृत् । । ऐसी हालतमे कानजीस्वामीका पूजा-दान तथा व्रतादिकको धर्मकी कोटिसे निकाल कर यह कहना कि उनका करना 'धर्म' नही है और इसके लिये जैनमत तथा जिनेन्द्र भगवानकी दुहाई देते हुए यह प्रतिपादन करना कि 'जैनमतमे जिनेश्वर भगवानने व्रत-पूजादिके शुभ भावोको धर्म नहीं कहा है-आत्माके वीतरागभावको ही धर्म कहा है कितना असगत तथा वस्तुस्थितिके विरुद्ध है, इसे विज्ञ पाठक स्वय' समझ सकते हैं।
१ श्रीकानजी स्वामीकी सोनगढीय सस्थासे प्रकाशित समयसार ( गुटका ) में भी धर्मका अर्थ 'पुण्य' किया है।
( देखो गाथा २१० पृ० १५७ )