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कानजी स्वामी और जिनशासन
४७९ की प्रवृत्तिका मार्ग साफ कर रहे हैं, क्यो कि शुद्धभाव छद्मस्थावस्थामे सदा स्थिर नहीं रहता, कुछ क्षणमे उसके समाप्त होते ही दूसरा भाव आएगा। वह भाव यदि धर्मकी मान्यताके निकल जानेसे शुभ नही होगा तो लोगोकी अनादिकालीन कुसस्कारोके वश अशुभमे ही प्रवृत्त होना पडेगा। ___अब यहाँ एक प्रश्न और पैदा होता है वह यह कि जब कानजी महाराज पूजादिके शुभ रागको धर्म नही मानते तव वे मन्दिर, मतियो तथा मानस्तम्भादिके निर्माणमें और उनकी पूजाप्रतिष्ठाके विधानमे योग क्यो देते हैं ? क्या उनका यह योगदान उन कार्योंको अधर्म एव अहितकर मानते हुए किसी मजबूरीके वशवर्ती है ? या तमाशा देखने-दिखलानेकी किसी भावनाको साथमे लिये हुए हैं ? अथवा लोक-सग्रहकी भावनासे लोगोको अपनी ओर आकर्पित करके उनमे अपने किसी मत-विशेषके प्रचार करनेकी दृष्टिसे प्रेरित है ? यह सव एक समस्या है, जिसका उनके द्वारा शीघ्र ही हल होनेकी बडी जरूरत है, जिससे उनकी कथनी और करनीमे जो स्पष्ट अन्तर पाया जाता है उसका सामजस्य किसी तरह बिठलाया जा सके । उपसंहार और चेतावनी ___ कानजी महाराजके प्रवचन बराबर एकान्तकी ओर ढले चले जा रहे हैं और इससे अनेक विद्वानोका आपके विषयमें अव यह खयाल हो चला है कि आप वास्तवमे कुन्दकुन्दाचार्यको नही मानते और न स्वामी समन्तभद्र जैसे दूसरे महान् जैन आचार्यों को ही वस्तुत. मान्य करते हैं, क्योकि उनमेसे कोई भी आचार्य निश्चय तथा व्यवहार दोनोमेसे किसी एक ही नयके एकान्तपक्षपाती नही हुए हैं, बल्कि दोनो नयोको परस्पर साक्षेप,