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युगवीर- निबन्धावली
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कानजी स्वामीके 'जिन - शासन' शीर्षक प्रवचन लेखको लेकर लिखा गया है, जो 'आत्मधर्म' के अतिरिक्त 'अनेकान्त' वर्ष १२, सन् १९५३ की किरण ६ में भी प्रकाशित हुआ है । "जिनशासनको जिनवाणीकी तरह जिनप्रवचन, जिनागम-शास्त्र जिनमत, जिनदर्शन, जिनतीर्थ, जिनधर्म और जिनोपदेश भी कहा जाता है— जैनशासन, जैनदर्शन और जैनधर्म भी उसीके नामान्तर हैं, जिनका प्रयोग स्वामीजीने अपने प्रवचन - लेख में जिनशासन के स्थानपर उसी तरह किया है जिस तरह कि 'जिनवाणी' और 'भगवानकी वाणी' जैसे शब्दोका किया है। इससे जिन भगवानने अपनी दिव्य वाणीमे जो कुछ कहा है और जो तदनुकूल बने हुए सूत्रो - शास्त्रोमं निवद्ध हे वह सब जिनशासन का अंग है, इसे खूब ध्यान मे रखना चाहिये ।" ऐसी स्पष्ट सूचना भी मेरी ओरसे लेखके प्रथम भागमे की जा चुकी है, जो अनेकान्तकी उसी छठी किरणमे प्रकाशित हुआ है । और इस सूचनाके अनन्तर श्री कुन्दकुन्दाचार्य-प्रणीत समयसारके शब्दोमे यह भी बतलाया जा चुका है कि "एकमात्र शुद्धात्मा जिनशासन नही है", जैसा कि कानजी स्वामी "जो शुद्ध आत्मा वह जिनशासन है" इन शब्दो- द्वारा दोनोका एकत्व प्रतिपादन कर रहे हैं । शुद्धात्मा जिनशासनका एक विषय प्रसिद्ध है वह स्वयं जिनशासन अथवा समग्र जिनशासन नही है । "जिनशासनके और भी अनेकानेक विषय हैं । अशुद्धात्मा भी उसका विषय है, पुद्गल धर्म अधर्म आकाश और काल नामके शेष पांच द्रव्य भी उसके अन्तर्गत हैं । वह सप्ततत्त्वो, नवपदार्थों, चौदह गुणस्थानो, चतुर्दशादि जीवसमासो, षट्पर्याप्तियो, दस प्राणो, चार सज्ञाओ, चौदह मार्गणाओ, द्विविध चतुर्विध्यादि उपयोगो और नयो तथा