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युगवीर-निवन्धावली अरहतादिसु भत्ती वच्छलदा पवयणाभिजुत्तेसु । विजदि जदि सामण्णे सा सुहजुत्ता अवे चरिया ॥४॥ बंदग-संसणेहि अन्भुदाणाणुगमणपडिवत्ती। सरणेसु लमावणओ पाणिदिदा रायचरियम्हि ।।-४७।। दसण-णाणुवदेसो लिस्सग्गहणं च पोसणं तेसिं । चरिया हि सरागाणं जिणिंदपूजोरदेसो य॥४८॥ उपकुणदि जो वि णिच्चं जादुम्बष्णस्त समणसंघस्स। कायविराधणरहिदं सो चि लरागप्पधाणो सो।। -४६ ॥ जदि कुगदि कायखेदं वेजावजत्थमुजदो सपगे। ण हवदि, हवटि अगारी धस्मो सो सावधाणं से॥ -५० ॥
श्री कुन्दकुन्दाचार्यके इन वचनोसे स्पष्ट है कि जैनधर्म या जिनशासनमे शुभ भावोको अलग नही किया जा सकता और न मुनियो तथा धावकोके सरागचरित्रको ही उससे पृथक् किया जा सकता है। ये सब उसके अग हैं, अगोसे हीन अगी अधूरा या लडूरा होता है। तब कानजी स्वामीका उक्त कथन जिनशासनके दृष्टिकोणसे कितना बहिर्भूत एव विरुद्ध है उसे बतलाने की जरूरत नहीं रहती। खेद है कि उन्होने पूजा-दानव्रतादिकके शुभ भावोको धर्म मानने तथा प्रतिपादन करने वालोको "लौकिकजन" तथा "अन्यमतो" तो कह डाला, परन्तु यह बतलानेकी कृपा नही की कि उनके उस कहनेका क्या आधार है--किसने कहाँपर वैसा मानने तथा प्रतिपादन करनेवालोको "लौकिक जन" आदिके रूपमे उल्लेखित किया है ? जहाँ तक मुझे मालूम है ऐसा कही भी उल्लेख नही है । आचार्य कुन्दकुन्दने अपने प्रवचनसारमे 'लौकिक जन' का जो लक्षण दिया है वह इस प्रकार है :णिग्गंथो पबइदो वदि जदि एहिगेहि कम्महि । सो लोगिगो त्ति अणिदो संजम-तव-संजुदो चावि ।३-६६