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कानजी स्वामी और जिनशासन
४७५ जिन कुन्दकुन्दाचार्यका कानजी स्वामी सबसे अधिक दम भरते हैं और उन्हे अपना आराध्य गुरुदेव बतलाते हैं वे भी जब पूजा-दान-व्रतादिकका धर्मके रूपमे स्पष्ट विधान करते हैं तव अपने उक्त वाग्बाणोको चलाते हुए उन्हे कुछ आगा-पीछा सोचना चाहिए था। क्या उन्हे यह समझ नहीं पड़ा कि इससे दूसरे महान् आचार्य ही नहीं, किन्तु उनके आराध्य गुरुदेव भी निशाना बने जा रहे हैं ?
यहाँ पर मैं इतना और भी बतला देना चाहता हूँ कि श्री कुन्दकुन्दाचार्यने शुद्धोपयोगी तथा शुभोपयोगी दोनो प्रकारके श्रमणो ( मुनियो ) को जैन-धर्म-सम्मत माना है। जिनमेसे एक अनास्रवी और दूसरा सानवी होता है, अर्हन्तादिमे भक्ति और प्रवचनाभियुक्तोमे वत्सलताको मुनियोकी शुभचर्या बतलाया है, शुद्धोपयोगी श्रमणोके प्रति वन्दन, नमस्करण, अभ्युत्थान और अनुगमन द्वारा आदर-सत्कारकी प्रवृत्तिको, जो सब शुद्धात्मवृत्तिके सत्राणकी निमित्तभूत होती है, सरागचारित्रकी दशामें मुनियोकी चर्यामे सम्यग्दर्शन-ज्ञानके उपदेश, शिष्योके ग्रहण-पोपण
और जिनेन्द्र पूजाके उपदेशको भी विहित बतलाया है, साथ ही यह भी बतलाया है कि जो मुनि काय-विराधनासे रहित हआ नित्य ही चातुर्वर्ण्य श्रमण-सघका उपकार करता है वह रागकी प्रधानताको लिये हुए श्रमण होता है, परन्तु वैयावृत्यमे उद्यमी हुआ मुनि यदि काय-खेदको धारण करता है तो वह श्रमण नहीं रहता, किन्तु गृहस्थ ( श्रावक ) बन जाता है, क्योकि उस रूपमे वैयावत्य करना श्रावकोका धर्म है; जैसा कि प्रवचनसार की निम्न गाथाओंसे प्रकट है -
समणा सुद्धवजुत्ता सुहोवजुत्ता य होति समयम्हि । तेसु वि सुद्धवजुत्ता अणासवा सासवा सेसा ॥३-४५॥