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३० कानजी स्वामी ओर जिनशासन ४६५ मोक्षके हेतु है तब एकका दूसरेके साथ विरोध कैसा ? इसीसे जिस निश्चयनयका विपय वीतरागचारित्र है वह अपने साधक अथवा सहायक व्यवहारनयके विषयका विरोधी नही होता, बल्कि अपने अस्तित्वके लिये उसकी अपेक्षा रखता है। जो निश्चयनय व्यवहारकी अपेक्षा नही रखता, व्यवहारनयके विपयको जैनधर्म न बतलाकर उसका विरोध करता है और एकमात्र अपने ही विषयको जैनधर्म बतलाता हुआ निरपेक्ष होकर प्रवर्तता है वह शुद्ध-सच्चा निश्चयनय न होकर अशुद्ध एव मिथ्या निश्चयनय है और इसलिये वीतरागतारूप अपनी अर्थक्रियाके करनेमे असमर्थ है, क्योकि निरपेक्ष सभी नय मिथ्या होते हैं तथा अपनी अर्थक्रिया करनेमे असमर्थ होते हैं और सापेक्ष सभी नय सच्चे वास्तविक होते तथा अपनी अर्थनिया करनेमे समर्थ होते हैं, जैसा कि स्वामी समन्तभद्रके निम्न वाक्यसे प्रकट है - निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत् ( देवागम )
ऐसी हालतमे जो निरपेक्ष निश्चयनयका अवलम्बन लिये हुए हो वे वीतरागताको प्राप्त नहीं होते। इसीसे श्रीअमृतचन्द्रसूरि और जयसेनाचार्यने पचास्तिकायकी १७२वी गाथाकी टीकामे लिखा है कि 'व्यवहार तथा निश्चय दोनो नयोके अविरोधसे ( सापेक्षसे ) ही अनुगम्यमान हुआ वीतरागभाव अभीष्टसिद्धि ( मोक्ष ) का कारण बनता है, अन्यथा. दोनो नयोंके परस्पर निरपेक्षसे नहीं -
तदिदं वीतरागत्वं व्यवहार-निश्चयाऽविरोधेनैवानुगम्यमानं भवति समीहितसिद्धये न पुनरन्यथा ।'—(अमृतचंद्रः) 'तच्च वीतरागत्वं निश्चय-व्यवहारनयाभ्यां साध्य-साधकरूपेण परस्परसापेक्षाभ्यामेव भवति मुक्तिसिद्धये न च पुनर्निरपेक्षाभ्यामिति वार्तिकं।
-(जयसेनः)