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युगवीर-निबन्धावली
जिससे जिनशासन अथवा जैनधर्मका विश्वव्यापी प्रचार न हो सके। स्वामी समन्तभद्रके प्रवचन स्याद्वादन्यायकी तुलामे तुले हए होनेके कारण वचनानयके दोषसे रहित होते थे, इसीसे वे अपने कलियुगी समयमे श्रीवीरजिनके शासनतीर्थकी हजारगुणी वृद्धि करते हुए उदयको प्राप्त हुए हैं, जिसका उल्लेख कनडीके एक प्राचीन शिलालेखमे पाया जाता है और जिस तीर्थप्रभावनाका अकलकदेव-जैसे महद्धिक आचार्यने भी बड़े गौरवके साथ अपने अष्ट-शती भाष्यमे उल्लेख किया है ।
श्रीकानजीस्वामी अपने प्रवचनो पर यदि कडा अकुश रखें, उन्हे निरपेक्ष-निश्चयनयके एकान्तकी ओर ढलने न दें, उनमें निश्चय-व्यवहार दोनो नयोका समन्वय करते हुए उनके वक्तव्योका सामजस्य स्थापित करें, एक दूसरेके वक्तव्यको परस्पर उपकारी मित्रोके वक्तव्यकी तरह चित्रित करें-न कि स्व-परप्रणाशी शत्रुओके वक्तव्यकी तरह-और साथ ही कुन्दकुन्दाचार्यके 'क्वहारदेसिदा पुण जे तु अपरमेट्टिदा भावे' इस वाक्यको वास तौरसे ध्यानमे रखते हुए उन लोगोको जो कि अपरमभावमे स्थित है-वीतरागचरित्रकी सीमातक न पहुँचकर साधकअवस्थामे स्थित हुए मुनिधर्म या श्राक्कधर्मका पालन कर रहे हैं-व्यवहारनयके द्वारा उस व्यवहारधर्मका उपदेश दिया करें जिसे तरणोपायके रूपमे 'तीर्थ' कहा गया है, तो उनके द्वारा
१ देखो, युक्त्यनुशासनकी प्रस्तावनाके साथ प्रकाशित समन्तभद्रका सक्षिप्त परिचय ।
२ तीर्थे सर्वपदार्थतत्त्व विषयस्याद्वादपुण्योदधेर्भत्र्यानामकल्कभावकृतये प्राभावि काले कलौ । येनाचार्यसमन्तभद्रयतिना तस्मै नम. सन्तत, कृत्वा विनियते' ।