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युगवीर - निवन्धावली
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है । द्रव्य पर्यायके ( उत्पाद - व्ययके ) विना और पर्याय द्रव्यके ( धीव्यके ) विना नही होते, क्योकि उत्पाद व्यय और श्रीव्य ये तीनो द्रव्य - सत्का अद्वितीय लक्षण हैं, ये ( उत्पादादि ) तीनो एक दूसरेके साथ मिलकर ही रहते हैं, अलग-अलग रूपमे ने' द्रव्य ( सतु ) के कोई लक्षण नहीं होते और इसलिये दोनो मूलनय अलग-अलग रूपमे - एक दूसरेकी अपेक्षा न रखते हुए - मिथ्यादृष्टि हैं । अर्थात् दोनो नयोमेसे एक दूसरेकी अपेक्षा न रखता हुआ अपने ही प्रतिपादन करनेका आग्रह करता है तब वह अपने द्वारा ग्राह्य वस्तुके एक अशमे पूर्णताका माननेवाला होनेसे मिथ्या है और जब वह अपने प्रतिपक्षीनयकी अपेक्षा रखता हुआ प्रवर्तता हैउसके विषयका निरसन न करता हुआ तटस्थ रूपसे अपने विषय तब वह अपने द्वारा ग्राह्य
( वक्तव्य ) का प्रतिपादन करता है वस्तुके एक अशको अशरूपमे ही कारण सम्यकु व्यपदेशको प्राप्त होता
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पूर्णरूपमे नही ) माननेके सम्यग्दृष्टि कहलाता है ।'
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जब कोई भी नय
विषयको सत् रूप
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ऐसी हालत मे जिनशासनका सर्वथा 'नियत' विशेषण नही वनुता । चौथा 'अविशेष' विशेषण भी उसके साथ सगत नही बैठता, क्योकि जिनशासन अनेक विषयोके प्ररूपणादि- सम्बन्धी भारी विशेषताओको लिये हुए है, इतना नही, बल्कि अनेकान्तात्मक स्याद्वाद उसकी सर्वोपरि विशेषता है, जो अन्य शासनोमे नही पाई जाती । इसीसे स्वामी समन्तभद्रने स्वयभूस्तोत्रमे लिखा है कि 'स्याच्छब्दस्तावके न्याये नाऽन्येषामात्मविद्विषाम् (१०२) अर्थात् 'स्यात्' शब्दका प्रयोग आपके ही न्यायमे है, दूसरोके, न्यायमे नही, जो कि अपने वाद ( कथन ) के पूर्व उसे न अपनानेके कारण
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अपने शत्रु आप बने हुए हैं ।