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युगवीर-निवन्धावली निश्चय और व्यवहार दोनो नयो तथा उपनयोंके कथनको साथके साथ लिये हुए ज्ञान, ज्ञेय और चारित्ररूप सारे अर्थसमूहको उसकी सव अवस्थाओ-सहित अपना विषय किये हुए है।
यदि शुद्ध आत्माको ही जिनशासन कहा जाय तो शुद्धात्माके जो पाँच विशेषण-अवद्धस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष और असयुक्त-कहे जाते हैं वे जिनशासनको भी प्राप्त होगे । परन्तु जिनशासनको अवद्धस्पृष्टादिक-रूपमे कैसे कहा जा सकता है ? जिनशासन जिनका शासन अथवा जिनसे समुद्भत शासन होनेके कारण जिनके साथ सम्बद्ध है, जिस अर्थसमूहकी प्ररूपणाको वह लिये हुए है उसके साथ भी वह सम्बद्ध है, जिन शब्दोंके द्वारा अर्थसमूहकी प्ररूपणा की जाती है उनके साथ भी उसका सम्बन्ध है। इस तरह शब्द-समय, अर्थ-समय और ज्ञान-समय तीनोके साथ जव जिनशासनका सम्बन्ध है तब उसे अबद्धस्पृष्ट कैसे कहा जा सकता है ? नही कहा जा सकता। और कर्मोके बन्धनादिकी तो उसके साथ कोई कल्पना ही नही बनती, जिससे उस दृष्टिके द्वारा उसे अबद्धस्पृष्ट कहा जाय । 'अनन्य' विशेषण भी उसके साथ घटित नही होता, क्योकि वह शुद्धात्माको छोडकर अशुद्धात्माओ तथा अनात्माओको भी अपना विषय किये हुए है अथवा यो कहिए कि वह अन्य शासनो मिथ्यादर्शनोको भी अपनेमे स्थान दिये हुए है। श्री सिद्धसेनाचार्यके शब्दोमे तो वह जिनप्रवचन 'मिथ्यादर्शनोका समूहमय है, इतने पर भी भगवत्पदको प्राप्त है, अमृतका सार है और सविग्न-सुखाधिगम्य है, जैसा कि सन्मतिसूत्रके अन्तमे उसकी मगलकामनाके लिये प्रयुक्त किये गये निम्न वाक्यसे प्रकट है :
भह मिच्छादसणसमूहमइयस्स अमियसारस्स। जिणवयणस्ल भगवओ संविग्गसुहाहिगम्मस्स ॥३-७०॥