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युगवीर-निवन्धावली 'युग्म' या 'त्रिक' वनाता हो, अथवा यो कहिये कि इन पद्योमें 'युग्म' या 'त्रिक' रूपसे कोई पद्य नही है~-अर्थात् ऐसे जोडवा पद्य नही हैं जो दो-या-तीन मिलकर एक पूरा वाक्य वनाते हो और एक ही जिनका अन्वय होता हो, जिसके कारण उनमेसे एकका पेश कर देना आपत्तिके योग्य हो या किसी तरहपर अर्थका अनर्थ कर देनेमे समर्थ हो। बल्कि प्रत्येक पद्य अपने-अपने विपयमे स्वतत्र है और उसका उपयोग भी स्वतत्रताके साथ किया जा सकता है और इसलिये यह नहीं कहा जा सकता कि 'विमोक्षसुख' वाले ३७ वे पद्यके साथ ३८ वा और ३६ वा दोनो पद्य क्यो नही पेश किए गए, जिनका पेश करना साथमे कोई लाजिमी नही था। परन्तु शास्त्री बनारसीदासजी तथा वडजात्या मोहनलालजीका कहना है कि इन दूसरे पद्योको साथमे क्यो नही पेश किया गया ? और इससे यह साफ ध्वनित होता है कि आप लोग इन पद्योको जोडवा अथवा एक ही वाक्यके अविभक्त अग समझते हैं और यह आपकी कोरी भूल है। इसी भूलके वशवर्ती होकर दोनो महाशय इतने उतावले हुए हैं कि वे लेखककी नीयतपर आक्रमण करने और उसपर इस प्रकारका इलजाम लगाने तकका दु साहस कर बैठे हैं कि उसने अगले पद्योको अपने मन्तव्यकी सिद्धिमे वाधक समझकर ही उन्हे छोड दिया है नहीनही छिपा लिया है।' बल्कि शास्त्रीजी तो इस भूलके चक्करमे
१. शास्त्रीजी आक्षेप करते हुए लिखते हैं :
"इस प्रकरणों (1) के दो श्लोक ३८-३९ के है उनको नहीं उद्धृत किया। करते क्यो ? उनसे तो आपके मन्तव्यकी सिद्धि ही नहीं थी परन्तु. ऐसा कर्त्तव्य आप सदृश विद्वानको शोभा नहीं देता ।
इसी तरह वडजात्याजी लिखते हैं