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युगवीर-निवन्धावली
है ? क्योकि उससे शूद्रोके समवसरणमे जानेका तब कोई निषेध सिद्ध नही होता। खेद है कि अध्यापकजी अपने वुद्धिव्यवसायके इसी बल-बूतेपर दूसरोको आगमके विरुद्ध कथन करनेवाले और जनताको धोखा देनेवाले तक लिखनेकी धृष्टता करने बैठे हैं ।।
अव मैं यह बतला देना चाहता हूँ कि अध्यापकजीका उक्त एलोकपरसे यह समझ लेना कि समवसरणमे मिथ्यादृष्टि तथा सशयज्ञानी जीव नही होते कोरा भ्रम है-उसी प्रकारका भ्रम है जिसके अनुसार वे 'विपर्यय' पदका अर्थ 'मिथ्यात्वी' करके "मिथ्यादष्टि' और 'मिथ्यात्वी' शब्दोंके अर्थमे अन्तर उपस्थित कर रहे हैं और वह उनके आगमज्ञानके दिवालियेपनको भी सूचित करता है। क्योकि आगम मे कही भी ऐसा विधान नही है जिसके अनुसार सभी मिथ्यादृष्टियो तथा सशयज्ञानियोका समवसरणमे जाना वर्जित ठहराया गया हो; बल्कि जगह-जगहपर समवसरणमे भगवान्के उपदेशके अनन्तर लोगोके सम्यक्त्वग्रहणकी अथवा उनके सशयोंके उच्छेद होनेकी बात कही गई है
और जो इस बातकी स्पष्ट सूचक है कि वे लोग उससे पहले मिथ्यादृष्टि थे अथवा उन्हे किसी विषयमै सन्देह था। दूर जानेकी भी जरूरत नही, अध्यापकजीके मान्य ग्रन्थ धर्मसंग्रहश्रावकाचारको ही लीजिये, उसके निम्न पद्यमे जिनेन्द्रसे अपनी अपनी शङ्काके पूछने और उनकी वाणीको सुनकर सन्देह-रहित होनेकी बात कही गई है--
निजनिज-हृदयाकूतं पृच्छन्ति जिनं नराऽमरा मनसा । श्रुत्वाऽनक्षरवाणी बुध्यन्तः स्युर्विसन्देहाः ॥३-५४॥
हरिवंशपुराणके ५८वें सर्गमे कहा है कि नेमिनाथकी वाणी__ को सुनकर कितने ही जीव सम्यग्दर्शनको प्राप्त हुए, जिससे यह