________________
कानजी स्वामी और जिनशासन
४३९
स्पर्श करते हुए जिनशासनके रूप-विषयमे जो कुछ कहा गया है वह बडा ही विचित्र तथा अविचारितरम्य जान पड़ता है। सारा प्रवचन आध्यात्मिक एकान्तकी ओर ढला हुआ है, प्रायः एकान्त मिथ्यात्वको पुष्ट करता है और जिनशासनके स्वरूप-विपयमे लोगोको गुमराह करनेवाला है। इसके सिवा जिनशासनके कुछ महान् स्तभोको भी इसमे "लौकिकजन" "अन्यमती" जैसे शब्दोसे याद किया है और प्रकारान्तरसे यहाँ तक कह डाला है कि उन्होने जिनशासनको ठीक समझा नही, यह सब असह्य जान पडता है । ऐसी स्थितिम समयाभावके होते हुए भी मेरे लिए यह आवश्यक हो गया है कि मैं इस प्रवचनलेखपर अपने विचार व्यक्त करूं, जिससे सर्वसाधारणपर यह स्पष्ट हो जाय कि प्रस्तुत प्रवचन समयसारकी १५ वी गाथापर की जानेवाली उक्त शकाओका समाधान करने में कहाँ तक समर्थ है और जिनशासनका जो रूप इसमे निर्धारित किया गया है वह कितना सगत अथवा सारवान् है । उसीके लिए प्रस्तुत लेखका यह सब प्रयत्न है । आशा है सहृदय विद्वज्जन दोनो लेखोपर गभीरताके साथ विचार करनेकी कृपा करेंगे और जहाँ कही मेरी भूल होगी उसे प्रेमके साथ मुझे सुझानेका भी कष्ट उठाएंगे, जिससे मैं उसको सुधारनेके लिए समर्थ हो सकूँ। गाथाके एक पदका ठीक रूप, अर्थ और सम्बन्ध
उक्त गाथाका एक पद 'अपदेससंतमझ' इस रूपमे प्रचलित है। प्रवचनलेखमे गाथाको सस्कृतानुवादके रूपमे प्रस्तुत करते हुए इस पदका सस्कृत रूप 'अपदेशसान्तमध्यं' दिया है, जिससे यह जाना जाता है कि श्रीकानजीस्वामीको पदका यह प्रचलित रूप ही इष्ट तथा मान्य है, जयसेनाचार्यने सत (सान्त) के स्वा