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कानजी स्वामी और जिनशासन
४४५ है वह जिनशासन है' यह आपके प्रवचनका मूल सूत्र है, जिसे प्रवचनलेखमे अग्रस्थान दिया गया है और इसके द्वारा यह प्रतिपादन किया गया है कि शुद्धात्मा और जिनशासन दोनो एक ही हैं, नामका अन्तर है, जिनशासन ही शुद्धात्माका दूसरा नाम है। परन्तु शुद्धात्मा तो जिनशासनका एक विषय प्रसिद्ध है, वह स्वय जिनशासन अथवा समग्न जिनशासन कैसे हो सकता है ? जिनशासनके और भी अनेकानेक विषय हैं, अशुद्धात्मा भी उसका विपय है, पुद्गल धर्म अधर्म आकाश और काल नामके शेप पाँच द्रव्य भी उसके विपय है, कालचक्रके अवसर्पिणी उत्सर्पिणी आदि भेद-प्रभेदोका तथा तीन लोककी रचनाका विस्तृत वर्णन भी उसके अन्तर्गत है । वह सप्त तत्त्वो, नव पदार्थो, चौदह गुणस्थानो, चतुर्दशादि जीवसमासो, षट् पर्याप्तियो, दस प्राणो, चार सज्ञाओ, चौदह मार्गणाओ, द्विविध-चतुर्विध्यादि उपयोगो और नयो तथा प्रमाणोकी भारी चर्चाओ एव प्ररूपणाओको आत्मसात् किये अथवा अपने अक ( गोद ) मे लिये हुए स्थित है। साथ ही मोक्षमार्गकी देशना करता हुवा रत्नत्रयादि धर्म-विधानो, कुमार्गमथनो और कर्मप्रकृतियोके कथनोपकथनसे भरपूर है। सक्षेपमें जिनशासन जिनवाणीका रूप है, जिसके द्वादश अग और चौदह पूर्व अपार विस्तारको लिये हुए प्रसिद्ध है। ऐसी हालतमे जब कि शुद्धात्मा जिनशासनका एकमात्र विषय भी नही है तब उसका जिनशासनके साथ एकत्व कैसे स्थापित किया जा सकता है ? उसमे तो गुणस्थानो तथा मार्गणाओ आदिके स्थान तक भी नही है, जैसा कि स्वय कुन्दकुन्दाचार्यने समयसारमे प्रतिपादित किया है।
१ देखो, समयसार गाथा ५२ से ५५