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युगवीर-निवन्धावली पर जो 'सुत्त' (सूत्र) शब्द रक्खा है वह आपको स्वीकार नही है। अस्तु, इस पदके रूप, अर्थ और सम्बन्धके विपयमे जो विवाद है उसे शका न० ५ मे निवद्ध किया गया है। छठी शका इस पदके उस अर्थसे सम्बन्ध रखती है जिसे जयसेनाचार्यने 'अपदेससुत्तमझ' पद मानकर अपनी टीकामे प्रस्तुत किया है और जो इस प्रकार है -
"अपदेससुत्तमझं अपदेशसूत्रमध्यं, अपदिश्यतेऽथों येन स भवत्यपदेशशब्दः द्रव्यश्रतमिति यावत् सूत्रपरिच्छित्तिरूपं भावश्रुतं ज्ञानसमय इति, तेन शब्दसमयेन वाच्यं ज्ञानसमयेन परिच्छेद्यमपदेशस्त्रमध्यं भण्यते इति ।
इसमे 'अपदेस' का अर्थ जो 'द्रव्यश्रुत' और 'सुत्तं' का अर्थ 'भावश्रुत' किया गया है वह शब्द-अर्थकी दृष्टिसे एक खटकनेवाली वस्तु है, जिसकी वह खटकन और भी बढ़ जाती है जब यह देखने मे आता है कि 'मध्य' शब्द का कोई अर्थ नही किया गया-उसे वैसे ही अर्थसमुच्चयके साथमे लपेट दिया गया है।
कानजीस्वामीने यद्यपि 'सुत्त' शब्दकी जगह 'संत (सान्त)' शब्द स्वीकार किया है फिर भी इस पदका अर्थ वही द्रव्यश्रुतभावश्रुतके रूपमे अपनाया है जिसे जयसेनाचार्यने प्रस्तुत किया है, चुनांचे आपके यहाँसे समयसारका जो गुजराती अनुवाद सन् १९४२ मे प्रकाशित हुआ है उसमे 'सान्त' का अर्थ 'ज्ञानरूपीभावश्रुत' दिया है, जो और भी खटकनेवाली वस्तु बन गया है ।
सातवी शका इस प्रचलित पदके स्थानपर जो दूसरा पद सुझाया गया है उससे सम्बन्ध रखती है। वह पद है 'अपवेससंतमज्झ' । इस ससूचित तथा दूसरे प्रचलित पदमे परस्पर बहुत ही थोडा सिर्फ एक अक्षरका अन्तर है-इसमे 'वे' अक्षर है तो उसमे