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युगवीर-निवन्वावली मन्दिर मे जा सकते थे', और न केवल जा ही सकते थे बल्कि अपनी शक्ति और भक्तिके अनुसार पूजा करनेके वाद उनके वहाँ बैठनेके स्थान भी नियत थे, जिससे उनका जैनमन्दिरमे जाने आदिका और भी नियत अधिकार पाया जाता है।
मेरे उक्त लेखाश और उसपर अपने वक्तव्यके अनन्तर अध्यापकजीने महावीरस्वामीके समवसरणवर्णनसे सम्बन्ध रखनेवाला धर्मसंग्रहश्रावकाचारका एक श्लोक निम्न प्रकार अर्थसहित दिया है
"मिथ्याटिरभन्योप्यसंज्ञी कोऽपि न विद्यते । यश्चानव्यवसायोऽपि यः संदिग्धो विपर्ययः ।। १३६ ।।
अर्थात्-श्रीजिनदेवके समोशरणमें मिथ्यादष्टि असव्यअसंजीअनध्यवसायी-संशयज्ञानी तथा मिथ्यात्वी जीव नही रहते हैं।"
इस श्लोक और उसके गलत अर्थको उपस्थित करके अध्यापकजी वडी धृष्टता और गर्वोक्तिके साथ लिखते है
"बाबू जुगलकिशोरजीके निराधार लेखको धर्मसंग्रहश्रावकाचारके प्रमाणसहित लेखको आप मिलान करें--पता लग जायगा कि वास्तव आगमके विरुद्ध जैनजनताको धोखा कौन देता है ?"
१. यहॉपर इस उल्लेखपरसे किसीको यह समझने की भूल न करनी चाहिए कि लेखक आजकल वर्तमान जैनमन्दिरों में भी ऐसे अपवित्र वेषसे जाने की प्रवृत्ति चलाना चाहता है ।
२. श्रीजिनसेनाचार्यने ९वी शताब्दीके वातावरणके अनुसार भी ऐसे ऐसे लोगोका जैनमन्दिरमे जाना आदि आपत्तिके योग्य नहीं ठहराया
और न उससे मन्दिरके अपवित्र हो जानेको ही सूचित किया। इससे क्या यह न समझ लिया जाय कि उन्होंने ऐसी प्रवृत्तिका अभिनन्दन किया है अथवा उसे बुरा नहीं समझा ?