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युगवीर-निवन्धावली उत्सुकताके साथ गौरसे सुना, जो घटा भरसे कुछ ऊपर समय तक होता रहा है। सुनने पर मुझे तथा मेरे साथियोको ऐसा लगा कि इसमे मेरी शकाओका तो स्पर्श भी नही किया गया है—यो ही इधर-उधरकी बहुतसी बाते गाथा तथा गाथेतरसम्बन्धी कही गई हैं। चुनाँचे सभाकी समाप्तिके वाद मैने उसकी स्पष्ट विज्ञप्ति भी कर दी और कह दिया कि आजके प्रवचनसे मेरी शकाओका तो कोई समाधान हुआ नही। इसके बाद एक दिन मैंने स्वय अलहदगीमे श्रीकानजीस्वामीसे कहा कि आप मेरी शकाओका समाधान लिखा दीजिए और नही तो अपने किसी शिष्यको ही बोलकर लिखा दीजिए। इसके उत्तरमे उन्होने कहा कि 'न तो मैं स्वयं लिखता हूँ और न किसीको वोलकर लिखाता हूँ, जो कुछ कहना होता है उसे प्रवचनसे ही कह देता हूँ।' इस उत्तरसे मुझे बहुत बडी निराशा हुई, और इसी लिये यात्रासे वापिस आनेके बाद, अनेकान्त ( वर्ष ११ ) की १२ वी किरणके सम्पादकीयमे, 'समयसारका अध्ययन और प्रवचन' नामसे मुझे एक नोट लिखनेके लिये बाध्य होना पड़ा, जो इस विपयके अपने पूर्व तथा वर्तमान अनुभवोको लेकर लिखा गया है और जिसके अन्तमे यह भी प्रकट किया गया है कि
"निःसन्देह समयसार-जैसा ग्रन्थ बहुत गहरे अध्ययन तथा मननकी अपेक्षा रखता है और तभी आत्म-विकास-जैसे यथेष्ट फलको फल सकता है । हर एकका वह विषय नहीं है। गहरे अध्ययन तथा मननके अभावमें कोरी भावुकतामें वहनेवालोंकी गति बहुधा 'न इधरके रहे न उधरके रहे' वाली कहावतको चरितार्थ करती है अथवा वे उस एकान्तकी ओर ढल जाते हैं जिसे आध्यात्मिक एकांत कहते हैं और जो मिथ्यात्वमें