________________
समवसरणमें शूद्रोंका प्रवेश
४१७ ततः प्रदक्षिणीकुर्वन्धर्मचक्रचतुष्टयम् । लक्ष्मीवान्पूजयामास प्राप्य प्रथमपीठिकाम् ॥१६॥ ततो द्वितीयपीठस्थान विभोरठौ महाध्वजान् । सोऽर्चयामास सम्प्रीतः पूतैर्गन्धादिवस्तुभिः ॥२०॥ मध्ये गन्धकुटीद्धद्धि परायें हरिविष्टरे । उदयाचलमूर्धस्थमिवाकं जिनमैक्ष्यत ॥२१॥
-आदिपुराण पर्व २४ इन सब प्रमाणोकी रोशनीमे 'वहिस्ततः' पदोका वाच्य श्रीमण्डपका वाह्य प्रदेश ही हो सकता है-समवणरणका बाह्य प्रदेश नही, जो कि पूर्वाऽपर-कथनोके विरुद्ध पडता है। और इसलिये प० गजाधरलालजीने १७२वें पद्यमे प्रयुक्त हुए 'अन्त' पदका अर्थ “समवसरणमे" और १७३वे पद्यमे प्रयुक्त 'वहिस्तत' पदोका अर्थ 'समवसरणके बाहर' करके भारी भूल की है। अध्यापकजीने विवेकसे काम न लेकर अन्धानुसरणके रूपमे उसे अपनाया है और इसलिये वे भी उस भूलके शिकार हुए हैं। उन्हे अब समझ लेना चाहिये कि हरिवंशपुराणका जो पद्य उन्होने प्रमाणमे उपस्थित किया है वह समवसरणमे शूद्रादिकोके जानेका निषेधक नहीं है, बल्कि उनके जानेका स्पष्ट सूचक है, क्योकि वह उनके लिये समवसरणसे श्रीमण्डपके बाहर प्रदक्षिणाविधिका विधायक है। साथ ही यह भी समझ लेना चाहिये कि 'शूद्राः' पदके साथमे जो "विकुर्वाणा' विशेषण लगा हुआ है वह वह उन शूद्रोके असत् शूद्र होनेका सूचक है जो खोटे अथवा नीचकर्म किया करते है, और इसलिये सत्शूद्रोसे इस प्रदक्षिणाविधिका सम्बन्ध नही है-वे अपनी रुचि तथा भक्तिके अनुरूप श्रीमण्डपके भीतर जाकर गन्धकुटीके पाससे भी प्रदक्षिणा कर सकते हैं। प्रदक्षिणाके समवसरणमे दो ही प्रधान मार्ग नियतः