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युगवीर-निबन्धावली
उसीके वृत्ति ( आजीविका ) - भेदसे ब्राह्मणादिके चार भेद वतलाये हैं', जो वास्तविक नही हैं । उत्तरपुराणमे भी साफ कहा है कि इन ब्राह्मणादि वर्णों-जातियोका आकृति आदिके भेदको लिये हुए कोई शाश्वत लक्षण भी गो अश्वादि जातियोकी तरह मनुष्य- शरीरमे नही पाया जाता, प्रत्युत इसके शूद्रादिके योगसे ब्राह्मणी आदिकमे गर्भाधानकी प्रवृत्ति देखी जाती है, जो वास्तविक जातिभेदके विरुद्ध है । इसके सिवाय, आदिपुराणमे दूषित हुए कुलोकी शुद्धि और अनक्षरम्लेच्छो तकको कुलशुद्धिआदिके द्वारा अपनेमे मिला लेनेकी स्पष्ट आज्ञाएँ भी पाई जाती हैं । ऐसे उदार उपदेशोकी मौजूदगीमे शूद्रोंके समवसरणमे जाने आदिको किसी तरह भी आदिपुराण तथा उत्तरपुराणके विरुद्ध नही कहा जा सकता । विरुद्ध न होनेकी हालत उनका 'अविरुद्ध' होना सिद्ध है, जिसे सिद्ध करनेके लिये अध्यापकजी
१. मनुष्यजा तिरेकैव जातिकर्मोदयोद्भवा ।
वृत्तिभेदा हि तद्भेदाच्चतुर्विध्यमिहाश्नुते ॥ ३८-४५॥
२. वर्णाकृत्यादिभेदानां देहेऽस्मिन्न च दर्शनात् । ब्राह्मण्यादिषु शुद्वाधैर्गर्भाधान प्रवर्तनात् ॥ नास्ति जातिवृतो भेदो मनुष्याणा गवाऽश्ववत् । आकृतिग्रहणात्तस्मादन्यथा परिकल्पते ॥ (उ. पु. गुणभद्र ) ३. कुतश्चित्कारणाद्यस्य कुल सम्प्राप्तदूपणम् ।
सोsपि राजादिसम्मत्या शोधयेत्स्व यदा कुलम् ॥४०-१६८॥ तदाऽस्योपनयार्हस्व पुत्र-पौत्रादि-सन्ततौ ।
न निषिद्ध हि दीक्षा कुक्षे चेदस्य पूर्वजा ॥ - १६९।। स्वदेशेऽनक्षरम्लेच्छान् प्रजा वाधा- विधायिन । कुलशुद्धि-प्रदानाद्यै स्वसात्कुर्यादुपक्रमैः ॥ ४२-१७९ ।। - आदिपुराणे, जिनसेन