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समवसरण में शूद्रोंका प्रवेश
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साथमें व्यक्त किया है । इस श्लोकके अनुवादपरसे ही पाठक इस विपयका कितना ही अनुभव प्राप्त कर सकेगे। उनका वह अनुवाद, जिसे अध्यापकजीने चेलेंजमे उद्धृत किया है, इस प्रकार है
'जो मनुष्य पापी नीचकर्म करनेवाले शूद्र पाखण्डी विकलाग और विकलेन्द्रिय होते वे समोशरणके बाहर ही रहते और वहाँसे ही प्रदक्षिणापूर्वक नमस्कार करते थे ।"
इसमें 'उद्भ्रान्ता ' पदका अनुवाद तो बिल्कुल ही छूट गया है, 'पापशीलाः' का अनुवाद 'पापी' तथा 'पाखण्डपाटवा ' का अनुवाद 'पाखण्डी' दोनो ही अपूर्ण तथा गौरवहीन है और "समोशरणके बाहर ही रहते और वहाँसे ही प्रदक्षिणा पूर्वक नमस्कार करते थे" इस अर्थके वाचक मूलमे कोई पद ही नही हैं, भूतकालकी क्रियाका बोधक भी कोई पद नहीं है, फिर भी अपनी तरफसे इस अर्थकी कल्पना कर ली गई है अथवा 'परियन्ति वहिस्ततः ' इन शब्दोपरसे अनुवादकको भारी भ्रान्ति हुई जान पडती है । 'परियन्ति' वर्तमानकाल- सम्बन्धी वहुवचनान्त पद है, जिसका अर्थ होता है 'प्रदक्षिणा' करते हैं'-न कि ' प्रदक्षिणापूर्वक नमस्कार करते थे । और 'वहिस्तत' का अर्थ है उसके बाहर, उसके किसके ? समवसरणके नही, बल्कि उस श्रीमण्डपके बाहर जिसे पूर्ववर्ती श्लोक' में 'अन्त' पदके द्वारा उल्लेखित किया है, जहाँ भगवान्की गन्धकुटी होती है ओर जहाँ चपीठपर चढकर उत्तम भक्तजन भगवानकी तीन वार प्रदक्षिणा करते हैं, अपनी शक्ति तथा विभवके अनुरूप यथेष्ट पूजा करते हैं, वन्दना करते हैं और फिर हाथ जोडे हुए अपनी
१. प्रादक्षिण्येन वन्दित्वा मानस्तम्भमनादित. । उत्तमाः प्रविशन्स्यन्तरुत्तमाहितमक्तयः ॥ १७२||