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समवसरणमें शूद्रोंका प्रवेश
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चौथे, 'उस पापका भागी कौन होगा' यह जो अप्रासनिक प्रश्न उठाया गया है वह अध्यापकजीकी हिमाकतका द्योतक है । व्याकरणाचार्यजीने तो आगमके विरुद्ध कोई उपदेश नही दिया, उन्होने तो अधिकारीको उसका अधिकार दिलाकर अथवा अधिकारी घोषित करके पुण्यका ही कार्य किया है। अध्यापकजी अपने विषयमे सोचे कि वे जैनी दस्साओ तथा शूद्रोके सर्व साधारण नित्यपूजनके अधिकारको भी छीनकर कौनसे पापका उपार्जन कर रहे हैं और उस पापफलसे अपनेको कैसे बचा सकेंगे जो कुन्दकुन्दाचार्यकी उक्त गाथामे क्षय, कुष्ठ, शूल, रक्तविकार, भगन्दर, जलोदर, नेत्रपीडा, शिरोवेदना, शीत-उष्णके आताप और ( कुयोनियोमे ) परिभ्रमण आदिके रूपमे वर्णित है ।
पाँचवे, हरिवंशपुराणका जो श्लोक प्रमाणमे उद्धृत किया गया है वह अध्यापकजीकी सूचनानुसार न तो ५६वें सर्गका है और न १६०वे नम्बरका, बल्कि ५७वे सर्गका १७३वाँ श्लोक है । उद्धृत भी वह गलत रूपमे किया गया है, उसका पूर्वार्ध तो मुद्रित प्रतिमे जैसा अशुद्ध छपा है प्राय वैसा ही रख दिया गया है' और उत्तरार्ध कुछ बदला हुआ मालूम होता है। मुद्रित प्रतिमे वह "विकलागेंद्रियोद्माता परियंति वहिस्तत." इस रूपमै छपा है, जो प्राय ठीक है, परन्तु अध्यापकजीने उसे अपने चैलेजमे "विकलांगेन्द्रियोज्ञाता पारियत्ति वहिस्तता" यह रूप दिया है, जिसमे 'ज्ञाता', 'पारियत्ति' और 'तताः' ये तीन शब्द अशुद्ध हैं और श्लोकमें अर्थभ्रम पैदा करते हैं। यदि यह रूप अध्यापकजीका दिया हुआ न होकर प्रेसकी किसी गलतीका
१, यथा--"पापशीला विकुर्माणा. शूद्राः पाखण्डपांडवा."