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युगवीर-निवन्धावली ही नहीं, बल्कि श्रावकका ऊँचा दर्जा ११वी प्रतिमा तक धारण कर सकते हैं और ऊँचे दर्जेके नित्यपूजक भी हो सकते हैं। श्रीकुन्दकुन्दाचार्यके शब्दोमे 'दान और पूजा श्रावकके मुख्य धर्म हैं, इन दोनोंके बिना कोई श्रावक होता ही नहीं, ('दाणं पूजा मुक्खं सावयधम्मो ण सावगो तेण विणा' ) और शूद्र तथा दस्सा दोनो जैनी तथा श्रावक भी होते हैं तब वे पूजनके अधिकारसे कैसे वञ्चित किये जा सकते हैं ? नही किये जा सकते । उन्हे पूजनाधिकारसे वञ्चित करनेवाला अथवा उनके पूजनमे अन्तराय ( विघ्न ) डालनेवाला घोर पापका भागी होता है, जिसका कुछ उल्लेख कुन्दकुन्दकी रयणसारगत 'खय-कुछ-सूल-मूलो' नामकी गाथासे जाना जाता है। इन सब विषयोंके प्रमाणोका काफी सकलन और विवेचन 'जिनपूजाधिकारमीमासा' मे किया गया है और उनमे आदिपुराण तथा धर्मसंग्रहश्रावकाचारके प्रमाण भी सग्रहीत है। उन सब प्रमाणो तथा विवेचनो और पूजन-विषयक जैन-सिद्धान्तकी तरफसे आँखें बन्द करके इस प्रकारके चैलेजकी योजना करना अध्यापकजीके एकमात्र कौटिल्यका द्योतक है। यदि कोई उनकी इस तर्कपद्धतिको अपनाकर उन्हीसे उलटकर यह कहने लगे कि 'महाराज, आपही इन आदिपुराण तथा उत्तरपुराणके द्वारा शूद्रोका समवसरणमे जाना निषिद्ध सिद्ध कीजिये, यदि आप ऐसा नही कर सकेगे तो दस्साओके पूजनाधिकारको निषिद्ध करना आपका सर्वथा व्यर्थ सिद्ध हो जायगा' तो इससे अध्यापकजीपर कैसी बीतेगी, इसे वे स्वय समझ सकेगे । उनका तर्क उन्हीके गलेका हार हो जायगा और उन्हे कुछ भी उत्तर देते बन नही पडेगा, क्योकि उक्त दोनो ग्रन्थोके आधारपर प्रकृत विषयके निर्णयकी बातको उन्हीने उठाया है और उनमे उनके अनुकूल कुछ भी नही है।