________________
४१०
युगवीर-निवन्धावली दूसरे, व्याकरणाचार्यजीको एक मात्र आदि-पुराण तथा उत्तरपुराणके आधारपर किसी तीर्थंकरके समवसरणमे शूद्रोका उपस्थित होना सिद्ध करनेके लिये वाध्य करना किसी तरह भी समुचित नही कहा जासकता, क्योकि उन्होने न शूद्रोके समवसरण प्रवेशपर अपने पक्षको अवलम्बित किया है और न उक्त दोनो ग्रन्थोपर ही अपने पक्षका आधार रक्खा है। जब ये दोनो बातें नही तब यह प्रश्न पैदा होता है कि क्या अध्यापकजीकी दृष्टिमे उक्त दोनो ग्रन्थ ही प्रमाण हैं, दूसरा कोई जैनग्रन्थ प्रमाण नही है ? यदि ऐसा है तो फिर उन्होंने स्वय हरिवशपुराण और धर्मसंग्रहश्रावकाचारके प्रमाण अपने लेखमे क्यो उद्धृत किये ? यदि दूसरे जैनग्रन्थ भी प्रमाण है तो फिर एक मात्र आदिपुराण और उत्तरपुराणके प्रमाणोको उपस्थित करनेका आग्रह क्यो ? और दूसरे ग्रथोके प्रमाणोकी अवहेलना क्यो ? यदि समानमान्यता के ग्रन्थ होनेसे उन्हीपर पक्ष-विपक्षके निर्णयका आधार रखना था तो अपने निषेधपक्षको पुष्ट करनेके लिये भी उन्ही ग्रन्थोपरसे कोई प्रमाण उपस्थित करना चाहिए था, परन्तु अपने पक्षका समर्थन करनेके लिये उनका कोई भी वाक्य उपस्थित नही किया गया और न किया जा सकता है, क्योकि उनमे कोई भी वाक्य ऐसा नही है जिसके द्वारा शूद्रोका समवसरणमे जाना निषिद्ध ठहराया गया हो। और जब उक्त दोनो ग्रन्योमे शूद्रोंके समवसरणमे जाने-न-जाने सम्बन्धी कोई स्पष्ट उल्लेख अथवा विधि-निषेध-परक वाक्य ही नही तब ऐसे ग्रन्थोके आधारपर चैलेज की बात करना चैलेजकी कोरी विडम्बना नही तो और क्या है ? इस तरहके तो पूजनादि अनेक विषयोंके सैकडो चैलेंज अध्यापकजीको तत्त्वार्थ-सूत्रादि ऐसे ग्रन्थोको लेकर दिये