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गोत्रकर्मर शास्त्रीजीका उत्तरलेख ३८७ कारण मैं पहले वतला-आया हूँ। अत उन्हे अकर्मभूमिक शब्दकी पहली विवक्षा-म्लेच्छ खडोके मनुष्य-को छोड कर, अकर्मभूमिक शब्दकी दूसरी विवक्षा करनी पडी, जिसमे किसीको कोई विप्रति-पत्ति न हो सके। इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि आचार्यका अभिप्राय किसी-न-किसी प्रकारसे अकर्मभूमिक मनुष्यके सयमस्थान सिद्ध करना है न कि म्लेच्छ-खण्डोके सब मनुष्योमे सकलसयमकी पात्रता सिद्ध करना, यदि उनकी यही मान्यता होती तो वे अकर्मभूमिक शब्दसे विवक्षित म्लेच्छ खडके मनुष्योको छोडकर और अकर्मभूमिककी दूसरी विवक्षा करके सिद्धान्तका परित्याग न करते ।।" ____शास्त्रीजीके लेखकी ऐसी विवित्र स्थिति होते हुए और यह देखते हुए कि वे अपनी हेराफेरीके साथ जयधवल जैसे महान् ग्रन्थके रचयिता आचार्य महाराजको भी हेराफेरीके चक्करमे डालना चाहते हैं और उनके कथनका लब्धिसारमें निश्चित सार खीचनेवाले सिद्धान्त-चक्रवर्ती नेमिचन्द्र-जैसोकी भी बातको मानकर देना नही चाहते, यह भाव पैदा होता है कि तव उनके साथकी इस तत्त्वचर्चाको आगे चलानेसे क्या नतीजा निकल सकता है ? कुछ भी नही। अत मैं इस बहसको यहाँ ही समाप्त करता हूँ और अधिकारी विद्वानोसे निवेदन करता हूँ कि वे इस विषयमे अपने-अपने विचार प्रकट करनेकी कृपा करे।
—अनेकान्त वर्प २, किरण ५, २१-२-१९३६