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समवसरणमें शूद्रोंका प्रवेश है । मैं अपने इस लेख-द्वारा यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि अध्यापकजीका चैलेज कितना बेहूदा, बेतुका तथा आत्मघातक है और उनके लेखमे दिये हुए जिन प्रमाणोके बलपर कूदा जाता है अथवा अहंकारपूर्ण बातें की जाती हैं वे कितनी नि सार, निष्प्राण एव असङ्गत हैं और उनके आधारपर खडा हुआ किसी का भी अहङ्कार कितना बेकार है।
उक्त चैलेज-लेख सुधारकोके साथ आमतौरपर सम्बद्ध होते हुए भी खासतौरपर तीन विद्वानोको लक्ष्यमे लेकर लिखा गया है-तीन ही उसमें नम्बर हैं। पहले नम्बरपर व्याकरणाचार्य प० बन्शीधरजी का नाम है, दूसरे नम्बरपर मेरा नाम ( जुगलकिशोर ) 'सुधारकशिरोमणि' के पदसे विभूपित | और तीसरे नम्बरपर 'सम्पादक जैनमित्रजी' ऐसा नामोल्लेख है। परन्तु इस चैलेंजकी कोई कापी अध्यापकजीने मेरे पास भेजनेकी कृपा नही की। दूसरे विद्वानोके पास भी वह भेजी गई या नही, इसका मुझे कुछ पता नही, पर खयाल यही होता है कि शायद उन्हे भी मेरी तरह नही भेजी गई है और यो हीसम्बद्ध विद्वानोको खासतौरपर सूचित किये बिना ही-चैलेंजको चरितार्थ हुआ समझ लिया गया है | अस्तु ।।
लेखमे व्याकरणाचार्य प० बन्शीधरजीका एक वाक्य, कोई आठ वर्ष पहलेका, जैनमित्रसे उद्धृत किया गया है और वह निम्न प्रकार है
"जब कि भगवानके समोशरणमे नीचसे नीच' व्यक्ति स्थान पाते है तो समझमे नही आता कि आज दस्सा लोग उनकी पूजा और प्रक्षालसे क्यो रोके जाते हैं।"
इस वाक्यपरसे अध्यापकजी प्रथम तो यह फलित करते हैं