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समवसरणमें शूद्रोंका प्रवेश
४०५ अध्यापक मङ्गलसेनजीका नाम यहाँ खासतौरसे उल्लेखनीय है, जो अम्बाला छावनीकी पाठशालामे पढाते हैं। हालमे आपका एक सवा दो पेजी लेख मेरी नजरसे गुजरा है, जिसका शीर्षक है "१०० रुपयेका पारितोषिक-सुधारकोको लिखित शास्त्रार्थका खुला चैलेज" और जो 'जैन बोधक' वर्ष ६३ के २७वें अङ्कमे प्रकाशित हुआ है । इस लेख अथवा चैलेजको पढकर मुझे बडा कौतुक हुआ और साथ ही अध्यापकजीके साहसपर कुछ हंसी । आई । क्योकि लेख पद-पदपर स्खलित है-स्खलित भापा, अशुद्ध उल्लेख, गलत अनुवाद, अनोखा तर्क, प्रमाण-वाक्य कुछ, उनपरसे फलित कुछ, और इतनी असावधान लेखनीके होते हुए भी चैलेंज का दु साहस । इसके सिवाय, खुद ही मुद्दई और खुद ही जज बननेका नाटक अलग || लेखमें अध्यापकजीने बुद्धिबलसे काम न लेकर शब्दच्छलका आश्रय लिया है और उसीसे अपना काम निकालना अथवा अपने किसी अहकारको पुष्ट करना चाहा है, परन्तु इस बातको भुला दिया है कि कोरे शब्दच्छलसे काम नही निकला करता और न व्यर्थका अहकार ही पुष्ट हुआ करता है।
आप दूसरोको तो यह चैलेंज देने बैठ गये कि वे आदिपुराण तथा उत्तरपुराण-जैसे आर्षग्रन्थोके आधारपर शूद्रोका समवसरणमे जाना, पूजा-वन्दना करना तथा श्रावकके बारह व्रतोका ग्रहण करना सिद्ध करके बतलाएँ और यहाँ तक लिख गये कि "जो महाशय हमारे नियमके विरुद्ध कार्य कर समाधानका प्रयत्न करेंगे ( दूसरे आर्षादि ग्रन्थोके आधारपर तीनो बातोको सिद्ध करके बतलायेगे ) उनके लेखको निस्सार समझ उसका उत्तर भी नही दिया जावेगा।" परन्तु स्वयं आपने उक्त दोनो ग्रन्थोंके