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जैनागम और यज्ञोपवीत
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उस समय तक जैनियोंमें जनेऊका रिवाज हुआ होता अथवा वह जैनसस्कृतिका अग होता तो श्रीरविषेण ब्राह्मणोके लिये ऐसे हीन पदोका प्रयोग न करते जिससे जनेऊकी प्रथा अथवा जनेऊ - धारकोका ही उपहास होता हो ।) इसके उत्तर में विद्वान् लेखकने अपने लेख मे कुछ नही लिखा और न रविपेणाचार्य से भी पूर्वके किसी जैनागममे यज्ञोपवीत-सस्कारके स्पष्ट विधानका कोई उल्लेख ही उपस्थित किया है ।
लेखके अन्तमे यज्ञोपवीतको "जैनसंस्कृति और जैनधर्मका आवश्यक अंग" बतलाया है । लेकिन वास्तवमे यज्ञोपवीत यदि जैनसस्कृति और जैनधर्मका आवश्यक अग होता तो कमसे कम जैनधर्मके उन आचारादि - विषयक प्राचीन ग्रन्थोमे उसका विधान जरूर होता जो उक्त जिनसेनाचार्य से पहले के बने हुए हैं। ऐसे ग्रन्थोसे श्री वट्टकेरका मूलाचार, कुन्दकुन्दाचार्यका प्रवचनसार तथा चारित्तपाहुडादिक स्वामी समन्तभद्रका रत्नकरण्ड श्रावकाचार, उमास्वामीका तत्त्वार्थसूत्र, शिवार्यकी भगवती आराधना, पूज्यपादुकी सर्वार्थसिद्धि, अकलकदेवका तत्त्वार्यराजवार्तिक और विद्यानन्दका तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, ये ग्रन्थ खास तौरसे उल्लेखनीय हैं । इनमें कही भी मुनिधर्म अथवा श्रावकधर्मके धारकोके लिये वृतादिकी तरह यज्ञोपवीतकी कोई विधि-व्यवस्था नही है । श्री. रविषेणके पद्मपुराण और द्वि० जिनसेनके हरिवशपुराणमे सैकडो जैनियो की कथाएं हैं, उनमेसे किसीके यज्ञोपवीत-सस्कारसे संस्कृत होनेका उल्लेख तक भी नही है । ऐसी हालत मे यज्ञोप्रवीतको जैनधर्मका कोई आवश्यक अग नही कहा जा सकता और न यह जैनसस्कृतिका ही कोई आवश्यक अंग जान पडता है । - अनेकान्तवर्ष ६ कि० ६, १२-४-१९४४
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