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जैनागम और यज्ञोपवीत
४०१ प्रकारका जेवर है जिसे भोगभूमिया लोग पहनते थे। श्री वृपभदेवके पिता और भरतेश्वरके पितामह नाभिराय भोगभूमिया ही थे-कर्मभूमिका प्रारम्भ यहाँ वृपभदेवसे हुआ है। भ० वृषभदेव और भरतचक्रीके यज्ञोपवीत-सस्कारका तो कोई वर्णन भगवज्जिनसेनके आदिपुराणमें भी नही है। आदिपुराणके कथनानुसार भरतचक्रवर्तीने दिग्विजयादिके अनन्तर जव वृपभदेवकी वर्ण-व्यवस्थासे भिन्न ब्राह्मण वर्णकी नई स्थापना की तवसे व्रतचिह्नके रूपमें यज्ञोपवीतकी सृष्टि हुई। ऐसी हालतमें व्रतावतरण-विषयक मान्यताको भ्रमपूर्ण बताते हुए विद्वान् लेखकने जो यह लिखा है कि "मरत महाराजने गृहस्थका पद स्वीकार करके जब दिग्विजयके लिये प्रस्थान किया था तब भी उनके शरीरपर जिनसेनके शब्दोमे यज्ञोपवीत था" और उसके द्वारा यह बतलाना चाहा है कि व्रतावतरण क्रियाके अवसरपर भरतने यज्ञोपवीत नही उतारा वह कुछ सगत मालूम नही होता। क्योकि इस कथनसे पहले यह सिद्ध होना आवश्यक है कि दिग्विजयको निकलनेसे पहले भरतका यज्ञोपवीत-सस्कार हुआ था, जो सिद्ध नही है। जब यज्ञोपवीत-सस्कार ही नही तव भरतके व्रतावतरणकी बात ही कैसे बन सकती है ? जिनसेनने तो उक्त अवसरपर भी भरतके शरीरपर ( पर्व २६) दूसरे स्थानकी तरह उसी ब्रह्मसूत्र नामके आभूपणका उल्लेख किया है।
इसके सिवाय लेखकने व्रतातरण-क्रियामे सार्वकालिक व्रत
१. इसीसे भ० वृषभदेवके आभूषणोका वर्णन करते हुए यह भी लिखा है कि उन आभूषणोंसे वे भूषणाग-कल्पवृक्षके समान शोभते थे .
इति प्रत्यङ्ग-सङ्गिन्या वमौ भूषण-सम्पदा । भगवानादिमो ब्रह्मा भूपणाङ्ग इवांध्रिप ॥ -१६-२३८