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युगवीर-निबन्धादली
ही आगम प्रमाण विचारके लिये अवशिष्ट रह जाता है और वह है तिलोयपण्णत्तीका वाक्य । इस वाक्यमे भोगभूमियोके आभरणोका उल्लेख करते हुए 'ब्रह्मसूत्र' नामका भी एक आभरण ( आभूषण ) बतलाया है और वह मुकुट, कुण्डल, हार, मेखलादि जिन ज्वरोके साथ मे उल्लिखित है उन्ही की कोटिका कोई जोवर मालूम होता है, सूतके धागोसे विधिपूर्वक बना हुआ यज्ञोपवीत ( जनेऊ ) नही - भले ही ब्रह्मसूत्र यज्ञोपवीतको भी कहते हो, क्योकि भोगभूमि उपनयन अथवा यज्ञोपवीत संस्कार नही होता है । भोगभूमियोमे तो कोई व्रत भी नही होता और यज्ञोपवीतको स्वय जिनसेनाचार्यने व्रतचिह्न बतलाया है, जैसा कि आदिपुराण ( पर्व ३८, ३६ ) के निम्न वाक्योसे प्रगट है
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"व्रतचित' दधत्सूत्रं "व्रतसिद्धयर्थमेवाहमुपनीतोऽस्सि साम्प्रतम् ।" " व्रतचिह्नं भवेदस्य सूत्रं मंत्रपुरःसरम् ।"
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ऐसी हालत मे “केयूरं ब्रह्मसूत्रं च तेपां शश्वद्विभूषणम्" (३-२७ ) इस वाक्यके द्वारा जिनसेनाचार्यने भोगभूमियोंके आभूपणोमे जिस ब्रह्मसूत्रका उल्लेख किया है वह व्रतचिह्नवाला तथा मन्त्रपुरस्सर दिया - लिया हुआ यज्ञोपवीत नही हो सकता । वह तो भूषणाङ्ग जातिके कल्पवृक्षी द्वारा दिया हुआ एक प्रकारका आभूषण है— ज ेवर है ।
भगवान वृषभदेव और भरतेश्वरके आभूषणोका वर्णन करनेवाले श्रीजिनसेनके जिन वाक्योको लेख मे उदधृत किया गया है उनमे भी जिस ब्रह्मसूत्रका उल्लेख है वह भी उसी आकार -